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सुनो

suno

सुनो प्रिय

माना दुनिया धँसी हुई है

आतंक, अपराध और अन्याय के गहरे दलदल में बनकर गेंद

माना अविश्वास के रंग में रँगे हैं अतीत के पन्ने

उगी हैं निर्ममता की नुकीली घासें

कोमलता के मैदानों पर

जमी है फिसलन भरी लिप्सा की मोटी काई

महानता की झील पर

और इंसान अभी भी इंसान होने की राह में

है महज़ एक लड़खड़ाता शिशु

पर सुनो भंते

फिर भी बैठते हैं हम

किसी नाई के सम्मुख झुकाकर सिर

होकर अलमस्त, सुस्ताते, मीठी सोच में पगुराते

नहीं होती चिंता की बाल की जगह कहीं काट ले गला

होकर सवार गाड़ी मोटर में भरते हैं फ़र्राटे बचते-बचाते

यही सोचकर कि कर रहे हैं दूसरे भी ऐसा

किसी ग़रीब की तंगहाली पर हँसते कम ही हैं

दुखी होते हैं लोग ज़्यादा

तुम देखते ही हो मीत

कि दुनिया में उगता है रोज़ जिजीविषा का सूरज

आती है रात चाँद की डाल पर डाले नींद का झूला

माना आततायी की हँसी फैली है दक्षिण की दिशा में

पर यह भी तो देखो कि बाक़ी तीन दिशाएँ समेट रही हैं

शक्ति अपने ही अवशेषों से

तो हँसो साथी

कि अभी हँसने को है बहुत कुछ इस दुनिया में

कि अभी खेल रहे हैं बच्चे

पढ़ रही हैं लड़कियाँ

बतिया रहे हैं बूढ़े

हँस रही हैं औरतें

काम पर जा रहे हैं नौजवान

और लिखे जा रहे हैं प्रेमपत्र एकांत में।

स्रोत :
  • रचनाकार : आलोक कुमार मिश्रा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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