मेरा गला घोंट दो माँ
किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं
मगर सच है
प्यार जितनी बार किया जाए
चाँद, तितली और प्रेमिकाओं का मुँह टेढ़ा कर देता है
एक दर्शन हर बार बेवक़ूफ़ी पर जाकर ख़त्म होता है
आप पाव भर हरी सब्ज़ी ख़रीदते हैं
और सोचते हैं, सारी दुनिया हरी है
चार किताबें ख़रीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग़ में
और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं
आपको आस-पास तक देखने का शऊर नहीं
और देखिए, ये कोहरे की ग़लती नहीं
ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब
आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं
प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़
उसी का स्टाफ़ कल भागकर आया है गाँव से
उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी
और माँ को उठाकर ले गए
आप हालचाल नहीं, कॉफ़ी के दाम पूछते हैं उससे
आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से
बंगले और कार बुक करते हैं
और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है
दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,
जहाँ नियति में सिर्फ़ मौत लिखी है
या थूक चाटने वाली ज़िंदगी
आप विचारधारा की बात करते हैं
हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है
कि हम शर्तिया या तो बाएँ ख़ेमे की तरफ़ मुड़ेंगे
या तो मजबूरी में दाएँ की तरफ़
पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है…
जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि
माँ, तुम मेरा गला घोंट देना
अगर प्यास से मरने लगूँ
और पानी कहीं न हो।
- रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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