भूकंप में टूटे हुए घर की खिड़की पर
आकर बैठता है हरा पहाड़
उजाड़ बाग में उजियारा पोतकर जाती है धूप
जंगल में सुगंध फैलाए उड़ती है हवा
कहीं कुछ न हुआ जैसे, बहती हैं नदियाँ
झूमते रहते हैं पेड़-पौधे
क्षितिज के चमकीले आइने में
हिमनद से टूटा अपना चेहरा देखता है हिमालय
किसी बीमार बच्चे को ख़ुश करने जैसा
अँधेरे में टिमटिमाते हैं तारे
अँधेरी शाम, थके मज़दूर को रास्ता दिखाने
आ पहुँचता है आसमान में चमकीला चाँद
दिल के कोने–कोने में
उड़ते रहते हैं उमंगों के पंछी
सूखे दिलों में बढ़ती रहती हैं चाहतों की कोंपलें
गुब्बारेवाले के चारों ओर बच्चों की भीड़ जैसा
पलकों के आस-पास जमा होते हैं उजियारे
छाती के अंदर जोशीली हवा के झोंके आते हैं
आँसुओं की वर्षा में भी समय नया लक्ष्य चलता है
सूखी पहाड़ियों पर सजता है इंद्रधनुष
अकेले पहाड़ को आलिंगन में बाँधने
दूर देश से आता है प्रेमी बादल का झुँड
समस्याएँ उलझती रहती हैं
यात्राएँ टूटती रहती हैं
पर हरेक सुबह उम्मीद का नया सूरज उगता है
दावानल से जले कुंदे पर बैठे एक पंछी जैसा
गीत गाता रहता है जीवन।
- रचनाकार : चंद्र गुरुङ
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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