शर्म के पक्ष में
sharm ke paksh mein
एक भीड़ है पगलाई हुई
और पीछे जलते हुए घर तमाम
मैं सड़क किनारे खड़ा हूँ किताबें सँभाले
एक टूटे हुए लैंपपोस्ट की आड़ में खड़ा जाने किसे पुकार रहा हूँ
और आवाज़ बुझे बल्ब के हल्के धुएँ में डूबती जा रही है
उनके हाथों में सबसे महँगे मोबाइल हैं
वे उन्हें पिस्तौल की तरह पकड़े भाग रहे हैं
उनके पैरों में सबसे महँगे ब्रांड के जूते हैं और उन पर ज़रा-सी भी धूल नहीं
उनके सीनों पर सजी हैं सबसे महँगे संस्थानों की डिग्रियाँ
जेबें फूली हुई हैं, बाल एकदम सँवरे देह गमक रही है ख़ुशबू से
वे एक ही साँस में कहते हैं प्रेम, सेक्स, देश और फाँसी
एक ही सुर में भजन और रैप गाते खिलखिलाते हैं
इतिहास उनके जूतों के नीचे पिसता चला जाता है
भविष्य ख़ुशबू की तरह उड़ता है कमीज़ों से
वे किसी मंदिर के सामने रुकते हैं, झुकते हैं और उठते समय कनखियों से नहीं पूरी आँखों से देखते हैं पोर्न फिल्मों के पोस्टर और इसके ठीक बाद नैतिकता पर एक लंबा स्टेट्स लिखते हैं और फिर माँ बहन की गालियाँ देते वंदे मातरम् का उद्घोष करते पंच सितारा होटलों की बहुराष्ट्रीय बैठक में एकदम अमेरिकी अँग्रेज़ी में प्रेजेंटेशन देते विकास की परिभाषा समझाते हैं।
मैं निकल आया हूँ उस आड़ से पसीना पोंछते
मैंने अभी-अभी जिस भाषा में लिखा था एक शब्द
वह कुचली पड़ी है सड़क पर
उठाता हूँ उसे दो घूँट पानी पिलाता हूँ
तो हँसता है कोई—दूषित है यह पानी
झलता हूँ पंखा रूमाल से चेहरा पोंछता हूँ
तो हँसता है कोई—दूषित है हवा
मैं शर्मिंदा-सा उठता हूँ और वह मेरे चेहरे की शर्मिंदगी उखाड़ झंडे की तरह लिए भागता शामिल हो जाता है भीड़ में। मेरा रूमाल रख लिया उसने विजय-चिह्न की तरह और मेरी भाषा को पोस्टर की तरह चिपका दिया चौराहे पर।
मैं भौंचक देखता हूँ
तो कहता है कोई
शर्म अब हार का प्रतीक है
खेल के नए नियम हैं यह अब हार चुके हो तुम
जाओ अपनी भाषा की शर्म सँभालो
वह जो सबसे पहले हुई शर्मिंदा और अब हमारे लिए जिंगल लिखती है।
ग़ुबार बाक़ी है और मैं अकेला खड़ा शर्मिंदा
अपनी शर्म से जूझता एक पुराने पेड़ से टिकता हूँ
उस ओर खेत हैं सूखे और उन पर धब्बे तमाम
मेरे पाँवों में पुराने जूते हैं धूल और थकान से भरे
प्यास एक तेज़ उठती है गले में काँटे-सा चुभता है कुछ
चलता हूँ थोड़ी दूर और एक कुआँ रोकता है राह
जगत पर कत्थई धब्बे रस्सियाँ उदास
एक कमज़ोर-सा हाथ बढ़ाता है डोल तो चुल्लू पसारता हूँ
प्यास से पहले चली आती है वह शर्म और चौंक कर देखता हूँ चारों तरफ़
कहता है वह हाथ कमज़ोर—
मरना तो है ही बाबू पानी से या प्यास से
दोनों से बचे तो भी मरना ही है सल्फ़ास से
और मुस्कुरा कर रख देता है कंधे पर हाथ
पीता हूँ पेट भर पानी क़मीज़ की बाँह से पोछता हूँ मुँह लेता हूँ सीने भर साँस
और कहता हूँ—शर्म छोड़ दो तो कोई नहीं मार सकता हमें।
- रचनाकार : अशोक कुमार पांडेय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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