शहर

shahar

राजकुमार

और अधिकराजकुमार

    ऊँघता शहर

    अपने ठिकाने पर बैठा

    जुगुप्सा से अपनी नाक सिकोड़ता

    अनैतिक होने की फेर में है

    उसे अपने दाँतों के लिए

    क़ानूनन ख़ून में भीगा हुआ

    नरम गोश्त चाहिए

    जिसके लिए यह शहर

    अमूमन हत्या करने को तैयार है

    उसकी साज़िश

    अमानवीय घृणा में

    किसी भी क़ीमत पर

    सिर्फ़ अपना

    शासन चाहती है :

    जन के शोषण के लिए

    अपने शिकार में असफल हुए

    शहरी चील-कौवे

    आसमान से निहारते

    कर्कश ध्वनियों में बात करते

    धीरे-धीरे भौंकते

    श्वानों की गुटबाज़ी में तैयार होता प्रतिपक्ष

    अपने अंधेरे में

    नंगा होने की इच्छा रखते

    इस अनैतिक शहर को

    नोचते खसोटते चाटते

    धक्कम-धुक्का

    मुठभेड़ करते

    दिन-रात राजनीतिक साज़िशों में

    प्रतिबद्ध हैं

    चुपचाप अपने पक्ष का

    समर्थन बनाने में जुटा

    अवांछनीय भविष्यवाणियाँ करता शहर

    किसी चाटुकार की तरह

    जीभ से लार टपकाते

    अपने घृणित सपनों में खोए

    किसी सड़े हुए

    राजनीतिक घाव की तरह

    गंधा रहा है

    जिसकी चौतरफ़ा उन्नति

    पहले से ही अपनी

    असमानता के बल पर पल रही है

    दूर उधर

    तारकोल की सड़क के बीचो-बीच

    ठहरे हुए सूरज की रोशनी में

    पसीने में नहाई

    हवा-सी ज़िंदगी

    अब भी खड़ी है

    आशा है—

    इतना और ढकेलेंगे

    पिंडलियों से शहर को

    औ’ अपनी भाषा में

    शहर को अर्थ देंगे

    जाने क्या सूझता है

    कि इस पूरे गंधाते शहर को

    ताज़ी हवा का संस्कार चाहिए

    ताकि अपने घाव की सड़न को

    ढाँप सके

    छिपा सके

    या कोई अहिंसक इलाज़ करा सके

    यह शहर

    अब अपने पूरे होशोहवास में

    एक अनैतिक प्रतिस्पर्द्धा कर रहा है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राजकुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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