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व्यक्ति

रमानन्द रेणु

अन्य

अन्य

और अधिकरमानन्द रेणु

    परिस्थितिक लुक्कड़ पर

    बैसल हम

    पीबि रहलहुँ अछि अनुभूतिक गरम-गरम चाह,

    कि एकटा करू घोंट झिकझोरी देलक जे ठमकि गेलहुँ

    सतह परक भाफक उड़ैत गुब्बारामे देखल

    विगड़ितहुँ-विगड़ितहुँ बनै अछि आकृति मानवक

    गन्ध प्रबैत छै अहंक, ऐश्वर्यक

    विश्वक विराट् सत्ता, आकर्षण, संवेदन

    कतेको ऊँच-नीचकेँ समेटि कऽ जोगौने हो

    जे अपन आन्हर परम्पराक गाछीमे।

    एहि हेतुये तँ आकृति सभ

    तुच्छ अछि, क्षणिक अछि, अपूर्ण अछि;

    ब्यर्थ सभ चेष्टा छैक।

    पियालीक चारूकात

    उठै अछि अन्दर विश्वासक

    आशाक मिठौंस छैक

    दूधक छानल मोनक सभ वृत्ति छैक,

    पीड़ाक पानि जे मोहिना खौलायल अछि,

    संबोधक पत्तीसँ मिलल-जुलल जीवनक इच्छा—

    चाहकेर रङत छैक।

    हम नहुँये-नहुँये पीने जाइत छी कि सोमरस।

    किन्तु

    तृप्ति कहाँ? तृप्ति कहाँ?...

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 103)
    • संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
    • रचनाकार : रमानन्द रेणु
    • प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, बिहार
    • संस्करण : 1971

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