माँ!
काल्हिये अहाँ बारने छलहुँ ने
चूल्हि लग जयबासँ जे
बियाह-दोंगा कोना हैतो
गै बाउ, जौं
हाथ-गोर जरि जेतौ
'काल्हिये तँ रोटी फुलबैत काले
धाह लागि गेल छल
फोंका नहि उठलौ
लाली देखि कनछि उठल छलहुँ अहाँ
मड़बाक बाँस जकाँ झूमल छल अहाँक मोन
अहिबातक दीप लेसइत
गोहरौने छलहुँ देवता-पित्तरकेँ
हमर अचल सोहाग लेल
आइ-माइ-दाइ उठौने छली समदाओन
पूर्ण भेल परछौनी आ चौठारी
सभ कहल अहाँक सोन केर सोन
मुदा, नहि जानल माय
जे कोन नजरि बनल
'अगिनबान' कि 'भुइसला'
अहाँ धऽ लेल भरि पाँज, मोन अइ
मुदा, नहि बूझल जे कियैक
पंजियौने, पंजियौने हमरा बैसा अयलहुँ
सजल अग्निकुंडमे
जकरा लग जायसँ बारने छलहुँ कहियो
गोटा विवाहे-दोंगा मात्र होबऽ लेल?
हमरा जीबिते जरैत देखि
अहाँ कियैक नहि कनछल
ओहि दिनुका धाह लागऽ जकाँ
कियैक मस्तक भऽ गेल ऊँच
पुण्य कार्यक गौरवसँ?
माय,
अहूँ तँ स्त्रीये छी!
माय छी, तइयो नहि बूझल
वैधव्यसँ दगधल मोनक ताप
राँड़ लेल बदलि गेल दुनिया
बदलि जाओ
हमर मोनक सुगा तँ हेरैत छल
अहीँक कोराक पिंजरा
हम देखि रहल छी माँ,
अहाँ पुनः लेसि रहल छी अहिबातक दीप
कऽल जोड़ै छी माय
अइ दीप केर जोतिकेँ जीविते चिता नहि बनायब
जौं दैबा हमरे सन ओकरो भऽ जाय बाम!
- पुस्तक : इजोरियाक अङैठी मोड़ (पृष्ठ 59)
- संपादक : माला झा
- रचनाकार : विभा रानी
- प्रकाशन : किसुन संकल्प लोक
- संस्करण : 2004
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