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समाजवाद

samajawad

अनुवाद : देवेंद्र सत्यार्थी

बावा बलवंत

अन्य

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बावा बलवंत

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बावा बलवंत

और अधिकबावा बलवंत

    ख़ूब कोशिशें हुईं मुझे मिटा डालने के लिए,

    एक नई आती हुई कोमल आशा-लता

    ज़ुल्म के पैरों तले कुचलने और दबाने के लिए

    ख़ूब कोशिशें हुईं मुझे मिटा डालने के लिए।

    मेरे जन्म से पूर्व एक ज्योतिषी कहता रहा,

    इसके हाथों महारानी की मृत्यु होगी,

    इसलिए रानी के अंगरक्षक, उसके दास, उसके मंत्री,

    उसके कुत्ते, उसके चिकित्सक, उसके फ़क़ीर,

    मेरे जन्म-दिन पर ही मेरी हत्या के लिए दल-बल सहित आए।

    सैंकड़ों यम जैसे तोपों, गोलों और सेनाओं के साथ,

    वे मेरा महाकाल बनकर आए।

    लोहे की एक साज़िशी दीवार बनवाई गई,

    अलग-अलग देश घेर लिए क्रोध-शृंखलाओं में,

    ख़ूब कोशिशें हुईं मुझे मिटाने के लिए।

    पर एक महापुरुष मेरा पालन करता रहा,

    अत्याचार की आग को वह प्रतिक्षण ठंडी करता रहा।

    वह सदैव मेरे लिए जीता रहा, मरता रहा,

    जाति की रग-रग में जीवन-रक्त भरता रहा।

    दाढ़ियों के ज़लज़ले आए, तसबीओं के आए तूफ़ान,

    तीर लेकर वेद उठे, तलवारें लेकर उठे क़ुरआन,

    इंजील ने भी तेज़ किए प्रचार के ख़ंजर,

    मेरे जन्म को शैतान की कला बताया गया

    बा-ईमान की मौत (बताया गया)।

    मेरे पालकों को रीछ और वहशी कहकर संसार में बदनाम किया गया।

    उन्हें आदमखोर कहकर हर अख़बार ने, सब्र का घूँट पिया।

    गिरजों ने गला फाड़कर कहा : यह है ईसा की मृत्यु।

    मस्जिदों से शोर उठा : यह गई चौदहवीं सदी।

    हथियारों से लैस होकर सभी अंधकार मिलकर उठे,

    एक उभरते, एक उदय होते दिन को दबाने के लिए,

    ख़ूब कोशिशें हुईं मुझे मिटा डालने के लिए।

    ख़ूब हुई कोशिशें मुझे मिटा डालने के लिए,

    पर मैं बलिदान के खेतों में पलता ही रहा,

    दिन रात फूलता-फलता रहा,

    मेरे जीवन का प्रकाश बढ़ता गया, बढ़ता गया,

    जनता का प्रेम मेरा जीवन बनता गया।

    दूसरी ओर महारानी के साँस घटते गए,

    मुसाहिबों के मुख से लुप्त हो गया चिंता-रहित प्रकाश

    शाही दरबारों की रौनक पर छा गई उदासी,

    काँपते दिखाई दिए सिंहासन के पैर,

    काँपते-लरजते होंठों से आई यह आवाज़,

    क्या मेरी रक्षा का कोई उपाय नहीं हो सकता?

    क्या दरबार में कोई ऐसा वीर नहीं रहा?

    क्या कोई ऐसी पूतना नहीं,

    जो जाकर उस बालक को विष दे सके?

    फिर कोशिशें हुईं मुझे मिटाने के लिए।

    मरती रानी को बचाने के लिए फिर उठे कुछ दीवाने,

    मानव के रक्त को अमृत बनाने के लिए,

    एक वृद्धावस्था की रक्षा के लिए,

    फिर कोशिशें हुईं मुझे मिटाने के लिए।

    कुछ पुराने नामों में परिवर्तन किया गया,

    वास्तविक वस्तुएँ वही रहीं,

    आर्यवंश परंपरा का आया तूफ़ान,

    काली करतूतों वाले रोम से उठी एक आँधी,

    एशिया के एक देश से भी आया पीला तूफ़ान,

    सब के पर्दों के पीछे थी रानी की रक्षा,

    नारों से गगन कँपाया गया।

    नस्ल के नाम पर हर इंसान को भड़काया गया,

    दूसरे संप्रदाय के हाथ आए लोगों को मरवाया गया,

    आग में जलाया गया।

    मेरे पृष्ठपोषक रास्तों में क़त्ल किए गए,

    बेगुनाहों को फाँसी पर लटकाया गया,

    कारागार में लाखों व्यक्तियों के शरीर नष्ट किए गए,

    जिस काग़ज़ पर भी मेरा नाम आए उसे जलाकर ख़ाक कर डाला,

    मेरा हर हुलिया नष्ट किया गया,

    एक वृद्धावस्था की रक्षा के लिए।

    फिर कोशिशें हुईं मुझे मिटाने के लिए।

    अनेक बाग़ कर दिए वीरान,

    अनेक खेत कर दिए नष्ट,

    अनेक देश उजाड़ दिए,

    टैंक लड़ाए गए टैंकों के साथ,

    जैसे पर्वत जूझ रहे हों,

    लोहे से लोहा टकराया इस प्रकार,

    गगन पर बिजलियाँ टकराएँ जिस प्रकार,

    सेना पर सेनाओं के आक्रमण हुए इस प्रकार।

    जिस प्रकार गरजते हैं काले मेघ।

    दोनों तरफ़ से युवक ख़ूब टकराए,

    जैसे जूझें आपस में तूफ़ान,

    ऐसा लगता था रण का हाल,

    जैसे घुले जा रहे हों लाखों भूचाल,

    बिना सूचना दिए हुआ जो आक्रमण महान्,

    आख़िर मिट के रहा उसका भी नामो-निशान।

    मेरा युग आया है जो बिन आए जा सकता नहीं,

    कोई महारानी की हस्ती को बचा सकता नहीं।

    कोई पर्वत, चीन की दीवार, या सागर कोई,

    कोई मेरे पैर की ज़ंजीर हो सकता नहीं।

    बल से नहीं रुक सकता समय का चलता पहिया,

    इस द्वंद्व की दृष्टि से कोई नहीं छिप सकता,

    जैसे दिन रात आगे ही आगे जाता है दरिया का क़दम,

    पीछे नहीं हट सकता मेरे व्यवहार का एक भी क़दम।

    दो से आगे तीन होते हैं जैसे, तीन से आगे चार,

    सिद्धांतों के सत्य की भी यही है परंपरा।

    सिद्धांतों के सत्य से है मेरा प्रकाश,

    मुझसे उज्ज्वल होगी धरती, उज्ज्वल होगा मुझसे आकाश,

    मेरे सम्मुख ठहर नहीं सकती कोई पहली व्यवस्था,

    जगत् में लोकप्रिय होके रहेगी,

    सिद्धांतों के सत्य से ही मैं हो जाऊँगा लोकप्रिय,

    रह नहीं सकती प्रकृति रोककर मेरी प्रगति,

    मेरे पीछे और है अभी अनुग्रह की वर्षा।

    उस के पीछे और भी हो सकती है दया की व्यवस्था,

    मानव की सूझ किसी की ग़ुलाम होकर नहीं रह सकती,

    जीव को कोई सदा के लिए बेड़ियों में नहीं जकड़ सकता,

    जीवन के स्वप्नों का ही तो मैं हूँ एक चित्र,

    वे स्वयं दब गए जो मुझे दबाने के लिए उठे,

    मिट जाएँगे जो मुझे मिटाने के लिए उठे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 381)
    • रचनाकार : बावा बलवंत
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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