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सकल बन

sakal ban

बलराम कांवट

बलराम कांवट

सकल बन

बलराम कांवट

और अधिकबलराम कांवट

    सर्दियों की उजली धूप में

    इतनी दूर तक चमकते हैं सरसों के मैदान

    कि मेढ़ों में बँटे खेतों की लकीरें

    फूलों से ढक जाती हैं

    कहीं कोई बाड़ नहीं दिखती

    कोई अन्य फूल पौधा या घास नहीं

    सिर्फ़ एक पीला समुद्र है

    आँखों की कोर-कोर तक फैला हुआ

    ये फूल सबको भाते हैं

    कवि रीझते हैं इन पर

    ग्रामीण महिलाएँ

    अपने गीतों में इन्हें बार-बार गाती हैं

    वसंत के रागों में

    बार-बार आता है इनका ज़िक्र

    मुझे भी ये

    बुरे नहीं लगते

    लेकिन एक शाम

    कुएँ की ढाय पर बैठे-बैठे

    मैंने एक गीत सुना गाँव की किसी गोरी के मुख से

    उसके सिर पर पीली लूगड़ी थी

    लूगड़ी पर भरोटा

    और सरसों के बीच डूबती उभरती

    वह गाती हुई जा रही थी

    वह अपने गीत में धरती से पूछ रही थी

    कि “तेरे माथे पर केवल सरसों के फूल क्यों हैं

    क्या ये सदा से इसी तरह फैले हुए थे मनुष्य के अहंकार की तरह

    या पहले कुछ और भी था

    अगर था तो क्या

    और फिर क्या हुआ ऐसा

    कि अब जहाँ देखो केवल सरसों का फूल है

    अब फूलों के नाम पर

    केवल सरसों का फूल हैं”

    उसने कई ऐसे पौधों

    और ऐसे फूलों के नाम लिए

    जो अब धरती पर कहीं नहीं थे

    उसने कई ऐसे सुखों के नाम लिए

    जो अब मनुष्य के पास कहीं नहीं हैं

    धरती ने उसके गीत का कोई जवाब नहीं दिया

    और वह ऐसे ही लौट गई

    अनुत्तरित

    घरों की ओर लौटती पगडंडी पर

    गीत गाती हुई

    मैं सोचने लगा कि क़रीब आठ सौ बरस पहले

    जब एक सेना के साथ चलता-चलता

    कवि ख़ुसरो आया था मेरे गाँव के पास

    तो क्या उसने यहीं देखी होगी ‘सकल बन सरसों’

    क्या उसने

    वन को ही कहा था—बन

    या खेतों को ही बन कहकर

    वह आगे बढ़ गया था

    मैंने अपने पुरखों से पूछा

    तो वे भी कुछ सदियों पहले तक नहीं जानते थे

    इस फ़सल का नाम

    उनके पुरखों ने भी

    इसे कभी नहीं उगाया

    फिर पता नहीं

    किसने कब दिया केवल

    एक ही पौधे को जीवित रहने का अधिकार

    हालाँकि अब भी इनमें मधुमक्खियाँ डोलती हैं

    वे अब भी यहाँ रस बनाती हैं

    लेकिन आकाश की ओर देखती हुई

    वे सोचती ज़रूर होंगी

    पहले का वह रस अब कहाँ गया

    पहले के वे रंग

    अब कहाँ गए

    मैंने पहली बार संदेह किया

    इन खिलती हुई सरसों की घाटियों और मैदानों पर

    मैंने पहली बार

    इन फूलों के वर्चस्व को देखा किसी दूसरी आँख से

    मैंने पहली बार समझा

    कि यह सरसों का महाविस्तार

    दूसरे हज़ारों लाखों पौधों और फूलों का मरघट है

    मैं पहली बार सरसों के बीच उदास बैठा हूँ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बलराम कांवट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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