धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस उजाला
dhire dhire lupt ho gaya divas ujala
अलेक्सांद्र पूश्किन
Alexander Pushkin

धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस उजाला
dhire dhire lupt ho gaya divas ujala
Alexander Pushkin
अलेक्सांद्र पूश्किन
और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन
धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस उजाला,
नील कुहासा संध्या का छाया सागर पर,
आए-आए पवन झकोरा, लहर उछाला
औ' लहराओ तुम उदास-से विह्वल सागर।
दूर कहीं पर साहिल नज़र मुझे है आता,
मुझ पर जादू करने वाली दक्षिण धरती,
मैं अनमन बेचैन उधर ही बढ़ता जाता,
स्मृतियों की सुख-लहर हृदय को व्याकुल करती।
अनुभव होता मुझे-भरी हैं आँखें फिर से
हृदय डूबता और हर्ष से कभी उछलता,
मधुर कल्पना चिर परिचित फिर आई घिर के
वह उन्मादी प्यार पुराना पुनः मचलता,
आती याद व्यथाएँ, मैंने जो सुख पाला,
इच्छा-आशाओं की छलना, पीड़ित अंतर...
आए-आए पवन झकोरा, लहर उछाला,
औ' लहराओ तुम उदास-से विह्वल सागर।
उड़ते जाते पोत, दूर मुझको ले जाना
इन कपटी, सनकी लहरों को चीर भयंकर,
किंतु न केवल करुण तटों पर तुम पहुँचाना
मातृभूमि है जहाँ, जहाँ है धुँध निरंतर,
वहीं कभी तो धधक उठी थी मेरे मन में
प्यार-प्रणय, भावावेशों की पहली ज्वाला,
कला-देवियाँ छिप-छिप मुस्काईं आँगन में
था यौवन को मार गया तूफ़ानी पाला,
जहाँ ख़ुशी तो लुप्त हुई थी कुछ ही क्षण में
हृदय चोट ने दर्द सदा को ही दे डाला।
तभी-तभी तो मातृभूमि तुमसे भागा था
नए-नए अनुभूति-जगत का मैं दीवाना,
भागा तुमसे दूर हर्ष-सुख के अनुगामी
यौवन, मित्रों से था जिनको कुछ क्षण जाना,
जिनकी ख़ुशियों, रंग-रलियों के चक्कर में पड़
अपना सब कुछ, प्यार हृदय का चैन लुटाया,
खोयी अपनी आज़ादी, यश, मान गँवाया
छला गया जिन रूपसियों से, उन्हें भुलाया,
मेरे स्वर्णिम यौवन में जो लुक-छिप आईं
उन सखियों की स्मृतियों का भी चिह्न मिटाया...
किंतु हृदय तो अब भी पहले सा घायल है
मिला न कोई मुझको दर्द मिटाने वाला,
मरहम नहीं किसी ने रखा, इन घावों पर
आए-आए पवन झकोरा, लहर उछाला
औ' लहराओ तुम उदास-से विह्वल सागर।
- पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 10)
- रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
- प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
- संस्करण : 1982
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