साधो! ई मुर्दन केर देश
sadho! ii murdan ker desh
नदीमातृका तीरभुक्ति सहजहि बाढ़िहु भसिआय।
पुनि कखनहु घन-विरल गगन रवि रौदी दगधल जाय॥
दाही रौदी दुहू पाटमे पिसल बचय नहि रंच।
ने कोनहु धंधा-उद्योगक बाट खुजल अछि संच॥1॥
खेत रेत अछि बनल, बाध बाधित न पटौनी घाट।
ने वन-बागहु हित अनुराग, न मिल-मेलहु केर ठाट।
ने कोनहु उद्योग-योजना, ने भ्रमणक परिभोग।
ने घाटी, ने वन-परिपाटी, ने सन्धान प्रयोग॥2॥
ने तीर्थक परमार्थ स्वार्थ-साधन न विकास विधान।
पुण्यभूमि मिथिला-माहात्म्यक ने कोनहु परिमान॥
अगिलग्गी तृण-पातक घरके जरबय सालहु साल।
खढ़-बाँसहुक अकाल, काल केर गाल रोग-जंजाल॥3॥
मच्छड़ केर संगीत गाम-घर की टी.वी. रंगीन!
दृश्य एतय भेटइछ कालाजर मलेरिया संगीन॥
लोकालयमे मचल कोलाहल पुर-पथ पथिक विशेष।
ई विदेह केर भूमि देहमे मांस-रक्त नहि शेष॥4॥
जन बनिहारक दूर पलायन गामक गाम हताश।
पढुआ पूत कमौआ जा' जा' कयलनि शहर निवास॥
महगी-मारल भुखल पिआसल नग्न-निरन्न समाज।
स्वतन्त्रता पूर्णांहुति हेतुक जनु समिधाहिक साज॥5॥
ताहू पर हड़कंप मचाबय भूकम्पक आघात।
राति विपत्तिक कटय न, बुझि पड़ हैत न एतय प्रभात॥
किन्तु प्रभातहु सुप्रभात कहबहुसँ पहिनहि हंत।
महाकाल जनु प्रलय मचाबय आबि तुलायल अंत॥6॥
धरती डोलि उठल जनु शेष-कमठ सिर-पीठ डोलाय।
चेत जाय नहि भूमिपुत्र केर दुर्गति सहना जाय॥
अथवा धरती-सुता मैथिलीके नित सीदित देखि।
फाटि पड़य छाती वसुधा केर, से बुझि पड़य परेखि॥7॥
सन्चौंतीसक भूकम्पक ओ संकट छल प्रत्यक्ष।
मुदा अठासीमे प्रवासहिक बिच, पुनि ते न समक्ष॥
छलहुँ ट्रेनमे चैन भेल हम नैन मूनि अधनिंद।
तावत दय अखबार हाथमे चौ काओल अरविंद1॥8॥
भोरहि भोर सोर मचइत छल, दरभंगा अछि ध्वस्त।
अखबारक खबरिक जे शीर्षक सुर्खीमे विन्यस्त॥
सोझे पटना उतरि स्टेशनक बस धए चिन्तित चित्त।
नहि खयबा-पिउबाक होस छल, तन कंपित मन रिक्त॥9॥
पहुँचि दृश्य देखल दरभंगा हंत! रंग बदरंग।
अंग भंग छल सगर नगर केर महल-मकान उलंग॥
किला रामबागक नभचुंबी छलय छहोछित भेल।
मंदिर-महजिद शीर्ष-गुंबजहु धूलि लोटाय अलेल॥10॥
किलाघाटके शिला मकतबहु पाटल शव-समुदाय!
गली-गलीमे हताहतक क्रंदन-रव मचले हाय!!
अस्पताल छल भरल कते मुइले कतोक म्रियमाण।
क्रंदन करइत परिवारक परिवार, न विपतिक त्राण॥11॥
गाम गामसँ खबरि लगै छल टोल टोल उध्वस्त।
घर छल ढहल, खेतमे रेतहि, बाट-घाट विध्वस्त॥
कतहु स्तूप बनि गेल कूप कहुँ डीहो डाबर भेल।
बालु पानि अपना-अपनी अवनीके भरइत गेल॥12॥
जे छल ठाढ़ बाढ़िसँ मारल शहर-देहात मकान।
छल क्षत विक्षत, भीत छहोछित, झड़ल सभक मुह-कान॥
बचलहुमे नछोड़ भूकंप-दानवक नखक निशान।
दुर्दैवक डाङहिक डेङाओल घर आङन खरिहान॥13॥
शीत वात वर्षा आतपमे गलित ज्वलित दिन-रैन।
कंपन-अनुकंपन भय कँपइत, नहि ककरहु पल चैन॥
कते कहब, की लिखब, न ककरहु उपर कोनो छल 'छाँव'।
गेले छथि कबीर कहि—'साधो! ई मुर्दन केर गाँव'॥14॥
के के नहि अयला देखय ई दृश्य मरघटक कुंज।
राजनयिक नेता शासनक प्रणेता झुंडक झुंड॥
किछु दाना छिटलनि, किछु कफनो बँटलनि, भरइत घाव।
मुदा निदान न कय सकला क्यौ, अपन सुतारल दाव॥15॥
सुनी रेडियो, देखि टीवियो, पढ़िओ खबरि 'रिसाल'2।
एते-ते आँकड़ा चढ़ाओल, पहुँचल किछु नहि भाल॥
नहि एखनहु धर जुटल टुटल घर, ने भरि सकल दड़ारि।
ने निरन्नके अन्न न वसन नगन के भेटल विचारि॥16॥
ने रिलीफ तकलीफशुदाके, ने जनहित अनुदान।
ने घर लेल सुलभ साधन किछु, छुच्छे वचन विधान॥
मुदा संपदा जन-विपदासँ अरजथि कते अनेर।
बिच-बिचौलिया राहत बाँटि घो टि जाइछ सब ढेर॥17॥
कते कहब, संधानी युवजन! पाँती गढ़ब रचाय।
एहि देशक ई व्यथा-कथा जहिसँ नहि पुनि दोहराय॥
अपन पैर पर ठाढ़ होउ कतबहु हो गाढ़ विपत्ति।
अभिमानी अभियानी युवदल स्वबल अरजु संपत्ति॥18॥
पंजाबी पंजा भिड़ाय, हरियानी हहरि हराय।
गुर्खा गुड़रि, नाच नंगा कय, भरि मुह मेबा खाय॥
तमिल अमिल रहितहुँ, तेलगु-कन्नड़ अड़ि कत कतराय।
केरल कलाबाजियहु बंगहु वामहु रंग जमाय॥19॥
बनल बिहार-हार रहितहुँ तिरहुति आहुतिहिक पात्र!
देखु भविष्य चेताय रहल अछि, अमृतपुत्र! दृढ़गात्र!!
दाहिनि कय अँह सिंहवाहिनी के शक्तिक समुदाय।
भूकम्पहु बाढ़िक झंपहु रौदी-तापहु मुसुकाय॥20॥
धीर तरुणदल अरुणोदयी क्षितिज तिरहुति केर तीर।
अमृतपुत्र हे! मृतहु मृत्तिकामे भरु प्राण-समीर॥
सुजला सुफला शस्यश्यामला जनक जनपदक भूमि।
अन्नपूर्णा स्वर्णभूषणा करअि सदल बल जूमि॥21॥
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 67)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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