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रोज़ मेरे किचन की खिड़की में

आती है एक गिलहरी और दो कबूतर

कुछ टुकड़े रोटी के लिए

मैं भी एहतियातन रख देती हूँ

कैसरोल में बचाकर

एक रोटी हर रोज़ रात को

आज फिर दिखा वह अधेड़ आदमी

हाँफता हुआ-सा

साइकिल पर पैडल मारते

घर की ओर जाते हुए

हम जल रहे हैं

एक-एक स्क्वायर फिट

हर रोज़

अमेज़न के जंगलों से

सोना मिल भी जाए तो क्या

हम पिघल रहे है

एक-एक ओंस

हर रोज़

आर्कटिक में जमे ग्लेशियर से

तरक़्क़ी हो भी जाए तो क्या

मेरा बेटा शेखू समझ बैठता है

दूर अरावली के पहाड़ों को

डंपयार्ड शहरों का

आज फिर दिखा

सपने में लेकिन

वही अधेड़ आदमी हाँफता-सा

साइकिल के पैडल को तेज़-तेज़ मारता

झक् सफ़ेद साफ़े, कुर्ते और धोती में इस बार

स्रोत :
  • रचनाकार : संगीता मनराल विज
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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