रास्ता और रास्ता

rasta aur rasta

मोना गुलाटी

मोना गुलाटी

रास्ता और रास्ता

मोना गुलाटी

और अधिकमोना गुलाटी

    तमाम स्थितियों को घूरती हुई आँख :

    अकस्मात् ही

    अटक जाती है आसमान में और

    चाँदनी में सराबोर हो भीतर

    लौट आती है।

    भीतर उमगते प्रकाश को सहजने के रास्ते

    उनकी पकड़ में नहीं आते

    और शुभ्र बर्फ़ीली पहाड़ियों में गुम हो जाते हैं :

    उसने सोचा है बहुत, कि

    आँख ही ढूँढ़ ले, रास्तों का क्या है,

    रास्ते बनते-बिगड़ते रहते हैं,

    उन्हें टटोलने की आवश्यकता भी क्या है :

    होते रहें गुम,

    खोते रहें शुभ्र बर्फ़ीली चटखती हुई

    पहाड़ियों में;

    उसे विश्वास है, उसे

    पगडंडियाँ बनानी आती हैं,

    चाहे उस एकांत

    में कोई चले या चले :

    पर भीतर डूबती आँख से छूटती

    उसकी पकड़,

    उसे असहाय करती है,

    और उसकी सोच

    बार-बार लौटती है

    आँख तक,

    और

    आँख नहीं मिलती... स्थितियों से

    जुड़ी हुई, जड़ी हुई आँख स्थितियों से!

    भीतर उमगता प्रकाश उसे

    उद्बोधित करता है, और

    मदहोशी में डूबते पाँव

    अब देखते ही नहीं रास्ता :

    चुप-चाप

    थिरक जाते हैं और रास्ता बनने लगता है :

    जिसका मन हो,

    वह चले, जिसका मन

    हो,

    वह चले :

    पर कहीं नहीं दिखता रास्ता :

    रास्ता और

    रास्ता!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 116)
    • रचनाकार : मोना गुलाटी

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