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रंज

ranj

मनीषा जोषी

और अधिकमनीषा जोषी

    उस दिन तुम ढूँढ़ रहे थे मुझे

    तब क्या मिली थी मैं तुम्हें?

    मेरे गीलेपन में

    जब भीग गए थे तुम

    अपने अंत तक

    तब क्या छू पाई थी मैं

    तुम्हारा शुष्क एकांत?

    फिर जब हमने चूम लिए थे

    एक-दूसरे के अंतरंग अंग

    देखे थे हमारे शरीर के तिल बहुत क़रीब से

    तब क्या हम देख पाए थे

    उन तिलों में जान डालती हुई रक्त-शिराएँ?

    उस वक़्त कमरे में फैल गई थी एक मदहोशी

    जैसे किसी सूअर को काटकर

    उसके शरीर में कच्चे चावल भरके

    तंदूर में एक लकड़ी पर लटकाकर

    उसे धीमी आँच पर पकाया जा रहा हो।

    कहते हैं जो भात सूअर के शरीर के अंदर पकता है

    उसका स्वाद ही कुछ और होता है।

    तुम्हें कोई रंज नहीं होना चाहिए

    मुझे पराजित करने में।

    मैं तो चाहती हूँ

    तुम ले लो मुझसे

    मेरी भाषा,

    मेरी स्मृति,

    मेरा शरीर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीषा जोषी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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