रात की चुनरी कब फटेगी?
raat ki chunari kab phategi?
नयन से निद्रा गुम है और निद्रा से स्वप्न बिछुड़ चुके हैं
बेग़ाने तो बेग़ाने थे, अपने भी अपने न रहे
भुज-पाश से भुजाएँ बिछुड़ चुकीं, तो ये गजरे किस काम के?
अब रूप के पदचिह्न नूतन नहीं, न उसके निःश्वास ही नूतन हैं
अंतस् से गीत गुम हो रहे हैं, होंठों से हँसी का बिछोह हो रहा है
इकरार का दरवाज़ा बंद हो चुका, साथ का प्याला टूट चुका
आज भी मेघ रंगीन है, आज भी फुहार बरस रही है
किंतु आज तेरे वचन कभी पूरे न होंगे
आज भी धरती पर फूल खिलते, आकाश में तारे जगमगाते हैं
किंतु तेरे वे नयन तो कपोलों का प्रकाश बन चुके
अब भी रात्रि केश-जाल के समान है, क्षितिज ओठों-जैसे हैं
अब भी फूल कपोलों के समान हैं और ओस-बिंदु अश्रुओं के सदृश
किंतु,
केश-जाल की छाया मिट चुकी है, पलकों के साये भी गुम हैं
नपती मरुभूमि और लंबा मार्ग, भला कोई गंतव्य तक कैसे पहुँचे?
आज सभी फरियादें ओठों पर आ-आ कर रह गई
स्मृति छिपते तारे के समान धूमिल हो गई
प्रीति की प्रतीक्षा मार्ग में मार्ग बनकर रह गई
ज्योति का हृदय भी दाग़दार है, वफ़ा का मुख क्षत-विक्षत है
रूप दीन-हीन है और प्रणय असमर्थ; प्राचीरें प्रबल हैं
विजय पराजित होकर प्रस्थान कर चुकी, पराजय अट्टहास कर रही है
रूप की माँग में सिंदूर नहीं, कोई सेहरे वाला भी दृष्टिगोचर नहीं होता
चाँद की चाँदनी पीली है, सूर्य काला है।
रात की चुनरी कब फटेगी? मेरा अंधकार प्रतीक्षा में है
कब कोई सूर्य आकर अश्रुओं को चूमेगा?
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 481)
- रचनाकार : सुरजीत रामपुरी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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