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क़ैदख़ाने से लिखे गए ख़त

qaidkhane se likhe ge khat

अनुवाद : सुरेश सलिल

नाज़िम हिकमत

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नाज़िम हिकमत

क़ैदख़ाने से लिखे गए ख़त

नाज़िम हिकमत

और अधिकनाज़िम हिकमत

    (1)

    मैंने अपनी उँगली के नाख़ून से

    उँकेरा है तुम्हारा नाम

    चमड़े के एक पट्टे पर...

    मैं जहाँ हूँ, तुम्हें पता ही है,

    कछुए के खपटे की मूँठ वाला चाकू वहाँ मुहैया नहीं

    धारदार चीज़ों की सख़्त मुमानियत

    नीली रंगत वाले

    चीड़ के दरख़्त यहाँ नहीं;

    अहाते में मुमकिन है इक्का-दुक्का कोई दरख़्त हो,

    लेकिन, मेरी जान, मुझे इस बात की इजाज़त नहीं

    कि अपने सिर के ऊपर नन्हें-सफ़ेद बादलों की

    मटरगश्ती का नज़ारा ले सकूँ।

    मैं नहीं कह सकता कि इस इमारत के अंदर

    मेरे जैसे कुल कितने लोग हैं।

    यहाँ मैं तन्हाई में हूँ: बाक़ी औरों से कटा हुआ;

    बाक़ी और मुझसे कटे हुए।

    मुझे सिर्फ़ ख़ुद से बातें करने की छूट है

    मगर, प्यारी, उससे चूँकि मुझे ऊब होती है,

    लिहाज़ा बातें करने की बजाय

    मैं गाता हूँ।

    तुम बख़ूबी वाक़िफ़ हो उस आवाज़ से—

    भोंड़ी,

    बेसुरी,

    इतने गहरे तक जाती कि मेरे अपने ही दिल को

    टुकड़े-टुकड़े करती हुई।

    और फिर,

    परियों की दास्तान वाले यतीम के मानिंद,

    जमा डालने वाली ठंड में

    नंगे पाँवों चलता हुआ

    पोंछता हुआ उसकी डबडबाई आँखों को

    उसकी बटन सरीखी नाक को।

    मेरा दिल रोने को आमादा है,

    हाँ, रोने को,

    कि बचाव के लिए: गेरुए जंगी घोड़े पर सवार

    हथियारों से लैस किसी जंगजू की आमद को,

    कि लगातार चौकसी करते

    कस्तूरा परिंदों की चीख़ें डुबा मारने को,

    बल्कि महज़ रोने को,

    कुछ भी माँगता हुआ

    किसी से कोई गिला-शिकवा करता हुआ,

    रोने को,

    बिल्कुल अकेले,

    और महज़ रोने को।

    और, मेरी प्यारी बीवी, तुम्हें पता होना चाहिए

    मैं अपनी उदासी को लेकर रत्ती-भर शर्मिंदा नहीं हूँ :

    शर्मिदा नहीं हूँ अपने बहुत नाज़ुक,

    बहुत इंसानी दिल के लिए

    बेशक इसकी वजहें हैं :

    जेहनी

    जिस्मानी

    वग़ैरह-वग़ैरह।

    यह शायद सलाख़ों वाली खिड़की की वजह से है

    जिसके उस पार सरसराती बसंती हवा

    इस स्टोव में

    मिट्टी के इस घड़े में

    और इन चारों दीवारों में हलचल पैदा कर रही है।

    जानेमन,

    पाँच का वक़्त हो चुका है!

    मेरी खिड़की के बाहर एक मनहूस बंजर इलाक़ा फैला है

    अपनी डरावनी सरगोशियों के साथ,

    उसकी ज़मीनी छत,

    उसका हड़ीला-लँगड़ा घोड़ा

    अनंत काल से अनंत काल तक यूँ ही

    बुत सरीखा खड़ा रहने को अभिशप्त

    एक मनहूस बंजर इलाक़ा,

    कबाड़ के अंबार,

    जंग-खाया लोहा-लंगड़,

    यानी कि हरेक चीज़ दरअस्ल

    किसी आदमी को क़ैदख़ाने में धकेलने

    उसे पागल क़रार देने के

    सर्वथा उपयुक्त

    एक मनहूस बंजर इलाक़ा :

    उससे परे एक रूखा लाल मैदान।

    जल्दी ही रात यक्-ब-यक् पसरेगी

    और एक नन्हीं लालटेन जाएगी

    धुँधलाती वीरानगी को

    लँगड़े घोड़े को

    चमकाने के लिए,

    और, लाश जैसी, अपनी सूखी-अकड़ी सख़्त

    शक्लो-सूरत वाली

    वहाँ पसरी क़ुदरत

    उस वीराने को यक्-ब-यक् अपने सितारों से

    भर देगी...

    और तब शुरू होगी जानी-पहचानी दुच्ची 'एंटी-क्लाइमेक्स'

    और सभी कुछ हो लेगा

    बाक़ायदे पूरा कर लिया जाएगा सभी कुछ

    मेरी ग़ैर मामूली शानदार उदासी की आमद के लिए।

    (2)

    मेरी प्यारी, मुझे तुमसे कुछ बहुत ज़रूरी बात कहनी है :

    आदमी जब भी अपनी रिहाइश बदलता है;

    अपने-आप को भी बदलता है।

    क़ैदख़ाने में मैं अपने सपनों से इश्क़ करने लग गया हूँ।

    नींद आती है,

    एक दोस्ताना हाथ

    जो चटख़नी खींचता है

    और इन चारों दीवारों को नीचे ढेर कर देता है।

    ग़ैर मामूली मिसाल :

    मैं अपने सपनों में डुबकी लगाता हूँ

    जैसे ठहरे हुए पानी में रोशनी।

    मेरे सपने ख़ूबसूरत हैं, बीवीजान!

    एक खुली और रोशन दुनिया में मैं हरदम आज़ाद हूँ।

    सपनों में मैं कभी भी शून्य में नहीं जा गिरा

    एक लम्हे के लिए भी मैं क़ैदख़ाने में रहा...

    तुम कहोगी :

    लेकिन जागना तो ख़ौफ़नाक ही होगा तुम्हारे लिए!

    नहीं, जानेमन,

    इसलिए; कि मेरे पास काफ़ी हिम्मत है

    नींद को देने के लिए सिर्फ़ उतनी;

    जितनी उसे लेने की इजाज़त हैं।

    (3)

    आज इतवार है

    और, आज पहली बार

    मुझे वे बाहर खुली हवा में ले गए।

    ज़िंदगी में पहली बार, मैं विस्मित हुआ यह देखकर

    कि आसमान कितना नीला है,

    कितनी दूर!

    चमकती धूप में मैं बुत बना खड़ा रहा

    फिर, बा-अदब मैं ज़मीन पर झुक गया

    और अपनी पीठ पत्थर की दीवार से टिका ली...

    यक्-ब-यक् सब कुछ बिसर गया :

    सपने

    आज़ादी और,

    जानेमन, तुम भी...

    बस्स् सूरज, धरती, और मैं

    आह, कितना ख़ुश मैं!

    स्रोत :
    • पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 185)
    • रचनाकार : नाज़िम हिकमत
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2003

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