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प्रजातंत्र की मिट्टी

prjatantr ki mitti

कलानाथ मिश्र

कलानाथ मिश्र

प्रजातंत्र की मिट्टी

कलानाथ मिश्र

और अधिककलानाथ मिश्र

    प्रजातंत्र की मिट्टी

    हो गई विशाक्त

    अब इसमें विष वृक्ष

    मात्र उगता है।

    जनता का मन व्यथित

    पराजित हताश

    लाचार

    ठगा-सा लगता है

    तन उसका घायल

    जीर्ण, रुग्ण, प्राणहीन

    निश्चेष्ट, मृत-सा लगता है

    सत्य खरा पराजित

    अंग-भंग विकृत

    शोनित से लथपथ

    उसका स्वरूप है।

    प्रजातंत्र की मिट्टी

    हो गई विशाक्त

    अब इसमें विष वृक्ष

    मात्र उगता है।

    देख रहे हो?

    प्रशासन के

    चमकीले, गर्वित, उन्नत

    मदांध मस्तक को?

    कितने निर्दोषों का

    दमन कर

    यह मुस्काता, निर्लज्ज

    बेख़ौफ़ खड़ा है

    कितने ही

    सत्यनिष्ठ निहत्थों का

    लहू पीकर

    रक्ताभ बना फिरता है।

    प्रजातंत्र की मिट्टी

    हो गई विशाक्त

    अब इसमें विष वृक्ष

    मात्र उगता है।

    देखो!

    सरकारी गुँडों की

    लपलपाती

    रक्ताभ जिह्वों की

    अंतहीन प्यास को

    किस कुशलता से

    रचता यह चक्रव्यूह

    फाँसता शिकार को

    चेहरे पर सजाकर

    छद्म मुस्कान

    भीतर कसाई-सा खंजर

    बेख़ौफ़ गला रेतते

    न्याय का क्रूरता से

    लहू के छीटों भरा

    किन्तु धुला वस्त्र है।

    प्रजातंत्र की मिट्टी

    हो गई विशाक्त

    अब इसमें विष वृक्ष

    मात्र उगता है।

    दम तोड़ता सत्य

    रक्तस्राव से, घुटन से

    शोनित का

    स्वाद ले तृप्त होता

    उनका अहम

    निर्दोषों के करुण

    मौन चित्कार से।

    मानुषखोर शासन के

    नग्न नृत्य पर

    विभत्स थिरक रहा

    छद्मवेशी प्रजातंत्र है।

    प्रजातंत्र की मिट्टी

    हो गई विशाक्त

    अब इसमें विष वृक्ष

    मात्र उगता है।

    सत्य सहमा-सा

    दुबका-सा

    देख रहा मनुज बलि के

    कुत्सित इस नृत्य को।

    सत्ता लोलुप

    सम्राटों की दमन नीति

    धन-वैभव, सत्ता की

    अंतहीन प्यास को

    और कितनो का बलि माँगेगा

    नित्य साम्राज्य का

    यह विध्वंशक

    विजय रथ

    प्रजातंत्र की मिट्टी

    हो गई विशाक्त

    अब इसमें विष वृक्ष

    मात्र उगता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कलानाथ मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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