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प्रस्तावना

prastavana

अनुवाद : रमेश कौशिक

जास्तिनास मार्चिंकेविचुस

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    (रक्त और राख कविता की प्रस्तावना)

    यहाँ एक गाँव था जो अब नहीं है

    इसे सारे ज़िंदा लोगों के साथ

    भस्म कर दिया गया है

    उनके साथ जिन्हें अभी ज़िंदा रहना था

    उनके साथ जिन्हें अभी मरना था

    उनके साथ जिन्हें दुनिया में अभी आना था

    यहाँ एक गाँव था जो अब नहीं है

    यह झूठ है

    गाँव अब भी है

    यहाँ है

    यह आज भी जल रहा है

    आज यह लपटों में है

    यह तब तक जलता रहेगा

    जब तक वह ज़िंदा रहेगा

    जिसने इसे आग को सौंपा

    पापी आग की लपटो

    शांत हो जाओ

    और मुझको देखने दो कि कौन जलता है

    मैं इस युवक को जानता हूँ

    यह वही है जिसने कहा था—

    मुझको याद है इसने कहा था—

    'मुझे जीवन की ज़रूरत इसलिए है

    ताकि ज़िंदा रह सकूँ मैं'

    इसे कितनी ज़रूरत थी

    और कितना कम मिला

    मेरे प्यारे कमसिन दोस्त मेरे भाई

    वैसा कहने के बजाए

    उस विनाशकारी दिन तुमने क्यों नहीं कहा

    'मुझे इस जीवन की ज़रूरत इसलिए है

    ताकि इससे लड़ सकूँ मैं'

    मेरे सीने में जलन हो रही है

    शायद कुछ जल रहा है

    निश्चय ही मेरा हृदय है

    मेरे हृदय तेज़ी से धधक

    तुझे आग को ज़िंदा रखना है

    ताकि फिर कभी जलाया जा सके

    ज़िंदा आदमी

    एक द्जुकिया-निवासी

    खेत में काम कर रहा था

    परती भूमि को

    ख़रीफ़ की बुवाई के लिए जोत रहा था

    जब वह बीच में ही था

    उन्होंने उसे रोक लिया

    ज़मीन पर जहाँ उसने हल छोड़ा

    आज तक वहीं है

    उसे जंग नहीं लगी

    क्योंकि वह किसान

    हर रात यहाँ वापिस आता है

    टाट की पैंट के पाँयचे चढ़ाता है

    प्रार्थना करता है

    और फिर हल चलाता है

    उसके कूँड़ निरंतर बन रहे हैं

    हमेशा-हमेशा के लिए बन रहे हैं

    पिर्चुंपिस से पानेराई

    पानेराई से औशवित्स

    और फिर औशवित्स से मौतहौज़ेन

    ये इतने ही अंतहीन हैं जितना जीवन

    ये कूँड़ जीवन के शाश्वत-पथ को खोज रहे हैं

    ये मौत के लिए खोदी गई खाइयों को

    चुनौती हैं

    इस हल पर कभी जंग नहीं लग सकती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक सौ एक सोवियत कविताएँ (पृष्ठ 261)
    • रचनाकार : जास्तिनास मार्चिंकेविचुस
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
    • संस्करण : 1975

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