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गंगा-तरंगिणी

सुरेन्द्र झा 'सुमन'

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और अधिकसुरेन्द्र झा 'सुमन'

    गिरिजा वामहि अंग, अहाँ शशिकलहुँ उपर चढ़

    की बनलि छी प्रिया जगत्पति पतिक अधिक बढ़ि?

    अहींक नीरबल नारायण-पद-नीरज पावन

    करथि अहिंक सञ्चय हित विधिहु कमण्डलु धारण

    अहँ त्रिदेव-सहचारिणी त्रिपथ-वाहिनी त्रिदश-धुनि

    त्रिविध ताप संहार हित होउ सदय जन पर जननि॥1॥

    अहँ हिम-नगपति महाकविक उर-द्रवित निरन्तर

    नित नव-नव हिम-भाव-सजल कविता चिर-सुन्दर

    ध्वनि-रस-गतिमय एक-एक पद-कणसँ सुरसरि

    युग-युगसँ छी दैत अमृत सन्देश विश्व भरि

    छाया-पथक विहारिणी गति रहस्य निधि गामिनी

    करब भाव उर्वर हमर, उर-मरु शीतल वाहिनी॥2॥

    शिव की सकितथि विष पचाय यदि लितथि माथे

    जैतथि सिन्धु सुखाय वाडवानलहिक हाथे

    की ठिठुरि हिमवान मरण-शय्यागत रहितथि

    यदि अमर-धुनि! अहँक अमृत-रस भाग्ये पबितथि

    शत शत ज्वालामुखी-मुख जरि जैतथि भू दग्ध भय

    जँ जुड़बितनि सुधामयि! अहँक सुधाधिक विमल पय॥3॥

    जन्म-जन्म सञ्चित हिमवन्तक पुण्यक लेखा

    भारत-भूमिक भाल बीच भाग्यक शुभ रेखा

    कयल जलधिके रत्नाकर दय जीवन-धारा

    भूतलके कयलहुँ स्वर्गहुसँ बढ़ि शुचि सारा

    तीर्थराज-लक्ष्मी अही, काशी शीतल-कारिणी।

    जनकभूमि-रज-कणक हित जय मिथिला-सहचारिणी॥4॥

    सगर सगर-सुत सुतल महानिद्रा–मुद्रित गुनि

    जननि! जगाओल मुक्ति-प्रभातक अरुण किरण बनि

    पाप-कुमुद-कुल भगीरथक दलनि, पुण्य-पंकज-विकासिका

    भगीरथी तप-गगन-भानु-रश्मिक प्रकाशिका

    हमर हृदय-कुहकर निबिड़ अछि अभेद्य मोहक अमा।

    करुणा-किरणक एक कण दय, प्रकाशमय करब मा॥5॥

    पाप-रात्रि निःशेष-कारिणी अही प्रभाती

    कलिक कलुषमय गुफा-तिमिर प्रति दीपक बाती

    जन्म-निधन-नक्षत्र अस्त हित दिनमणि दीपित

    यमभय-करिदल-दलन हेतु मृगपति उद्दीपित

    जनिक जलक कणसँ अघक शत-शत सेतुक भञ्जना।

    कत सम्भव मूकक मुखे तनिक शक्ति-अभिवन्दना॥6॥

    यदि हमर हो भाग्य जीव जे जल-सञ्चारी

    अथवा तट तरु पत्र खसय टुटि अन्तहु वारी

    यदि नहि सम्भव होय तृणक तनु सलिल-विलासी

    अथवा स्नातक केश लुलित भय स्रोतक वासी

    ओहि पथक हम रेणु-कण बनी, जाहि पथ पथिक जन

    जाथि, तनिक पद लागि कहुँ, जाय मिली तट बालु-कन॥7॥

    नहि कस्तूरी-तिलक भाल गंगौट लभ्य जत

    स्वर्णक कण अछि तुच्छ बालु-कण हो यदि उपगत

    अमृत-कलश ओंघड़ाय देब गंगाम्बु चुलुक भरि

    पंक अंग यदि संग, चन्दन लेपब उपकरि

    गंगा-स्रोतक छाड़निक यदि हो सम्प्रति बिन्दु भरि।

    चित चढ़त कथमपि हमर क्षीरक सम्भृत सिन्धु धरि॥8॥

    कण्टकमय तट-बास हेतु प्रासादहु तेजब

    छोड़ि अरगजा-लेपन गंगा-पाँक अङेजब

    नहि व्यवसायी पोत सागरक वक्ष-विहारी

    काठ बनब अछि इष्ट जाह्नवी-जल-सञ्चारी

    नहि कुंकुम कश्मीरजा युवति-कपोल-पराग रुचि।

    अंग-बंग-मगधक पशुक खुर-रज बनि लहि स्रोत शुचि॥9॥

    स्वर्ग-अर्गला तोड़ि गिरिक रोधन नहि मानल

    शिव-शिर वासक लोभ-लेश मनमे नहि आनल

    शत-शत प्रान्तर पार, सहस कोशक कय धावन

    अन्त क्लान्त मिलि, क्षार-वारि कयलहुँ भव पावन

    शतमुख विनिपातक कथा कहौ, खेदक लेश अछि।

    जगत-जीव-हित-साधना एक मात्र उद्देश्य अछि॥10॥

    द्विज-अन्त्यजके एक घाट जल अहाँ पिऔलहुँ

    दलित-दलहुँके पानि परसि, हरि-पद पहुँचौलहुँ

    स्वर्ग-मन्दिरक रुद्ध अर्गला खोलि सहज मति

    अघी, अन्त्यजक सुलभ कयल जननी दर्शन-गति

    अहँ सुधारिका धरणिमे प्रथम-प्रथम अयलहुँ जखन।

    यम-समाजमे गेल मचि रिक्त-रक्त हलचल तखन॥11॥

    गिरिक शिखरसँ सागर धरि एकहि प्रवाहसँ

    मुक्तिसाम्य सन्देश देल स्वच्छन्द नादसँ

    स्वर्ग-राज्यमे, भेद राखल नृपति-रंकमे,

    भक्तिक श्रममे, ज्ञानक पूजी-पतिक अंकमे

    मुक्ति-तन्त्र जन-सुगम कय, दण्डधरक बल लय निखिल।

    कान्तिकारिणी! कयल अहँ भव-वन्दी-बन्धन शिथिल॥12॥

    परम पुरातन, भगीरथक श्रमसँ सञ्चालित

    विश्व-अविद्या हरण हेतु हरि-पद उद्घाटित

    जत निर्वाध प्रवेश जलक कण-कण अध्यापक

    नर नारी शिशु युवा जीर्ण पल भरिमे स्नातक

    युग-युगसँ जत आर्यजन तत्व चयन कयलनि परम।

    करथु अविद्या दूर से विश्वक विद्यालय चरम॥13॥

    आदिकविक नहि छन्द, कालिदासक ध्वनि-बन्ध न,

    द्रविड़-शिशुक नहि कण्ठ, जगन्नाथक निबन्धन,

    विद्यापतिक स्वर, लभ्य पद्माकर सौरभ

    जननि! सुनाओत कोना मुग्धं सुत विनय हतप्रभ?

    किन्तु विदित विश्वास जननी हृदयाऽऽवर्जना।

    जड़सुत-क्रन्दन सुनि यथा, तथा चतुरक कल्पना॥14॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 26)
    • संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
    • रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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