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मैं गड़रिया हूँ

main gaDariya hoon

अनुवाद : सरिता शर्मा

फ़र्नांदो पेसोआ

अन्य

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फ़र्नांदो पेसोआ

मैं गड़रिया हूँ

फ़र्नांदो पेसोआ

और अधिकफ़र्नांदो पेसोआ

    1.

    मैं गड़रिया हूँ

    भेड़ें मेरे ख़याल हैं और

    हर ख़याल संवेदना।

    मैं सोचता हूँ अपनी आँखों और कान से

    हाथ और पाँव से, नाक और मुँह से भी।

    फूल के बारे में सोचना उसे देखना और सूँघना है।

    और फल को खाना उसका अर्थ जान लेना है।

    इसी वजह से एक गर्म दिन में

    बहुत ख़ुशी के बीच मैं उदास हो जाता हूँ,

    और घास पर लेट कर

    मूँद लेता हूँ अपनी आँखें।

    तो लगता है मेरा समूचा शरीर सच में लेटा हुआ है,

    मैं सत्य जानता हूँ, और मैं ख़ुश हूँ।

    2.

    धीमे-धीमे बहुत धीमे

    हौले से हवा चलती है.

    और गुज़र जाती है यूँ ही धीमे से,

    नहीं जानता मैं क्या सोच रहा हूँ,

    ही जानना चाहता हूँ।

    3.

    सिर्फ़ प्रकृति दैवी है, और वह दैवी नहीं है

    अगर मैं उसे कभी व्यक्ति कहता हूँ

    तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैं मनुष्य मात्र की भाषा बोल पाता हूँ

    जो चीज़ों का नामकरण कर देती है

    और उन्हें व्यक्तित्व से संपन्न बना देती है।

    मगर चीज़ें नाम या व्यक्तित्वविहीन हैं;

    वे बस हैं, और आकाश विशाल है धरती विस्तृत

    और हमारा दिल मुट्ठी भर...

    आभारी हूँ अपने अज्ञान का

    मैं वस्तुतः वही हूँ...

    आनंद लेता हूँ इन सबका वैसे ही

    जैसे कोई जानता हो सूरज विद्यमान है।

    अगर आप मुझमें रहस्यवाद देखना चाहें तो ठीक है मेरे पास है

    मैं रहस्यवादी हूँ, पर शरीर में ही

    मेरी आत्मा सीधी-सादी है, सोचती नहीं

    मेरा रहस्यवाद ज्ञान की कमी नहीं

    वह जीना और उसके बारे में सोचना है।

    मुझे नहीं पता प्रकृति क्या है: मैं इसे गाता हूँ,

    एक पहाड़ की चोटी पर रहता हूँ

    एकांत सफ़ेदी-पुते घर में,

    और वह मेरी परिभाषा है

    4.

    आज पढ़े मैंने दो पन्ने

    किसी रहस्यवादी कवि की किताब के

    और हँस पड़ा हालाँकि रोया भी जा सकता था

    रहस्यवादी कवि रुग्ण दार्शनिक हैं

    और दार्शनिक पगले होते हैं

    जो कहते हैं फूल महसूस करते हैं

    और पत्थरों में आत्माएँ हैं

    और चाँदनी में नदियाँ उन्मादी हो जाती हैं

    मगर फूल नहीं रहेंगे फूल अगर वे सोचने लगे

    वे बन जाएँगे इंसान

    और यदि पत्थर आत्मावान होते तो वे जीवित हो जाते, पत्थर कहाँ रहते;

    और नदियाँ अगर हो जाती उन्मादी चाँदनी में

    वे बीमार इंसान हो जातीं।

    जिन्हें समझ नहीं फूलों, पत्थरों और नदियों की

    वही बात कर सकते हैं उनकी आत्माओं की।

    जो बताते हैं पत्थरों, फूलों और नदियों की आत्माओं के बारे में

    अपनी और अपनी मिथ्या धारणाओं की बात करते हैं

    शुक्र है पत्थर महज़ पत्थर हैं,

    और नदियाँ सिर्फ़ नदियाँ

    फूल केवल फूल हैं।

    जहाँ तक मेरा सवाल है, अपनी कविताओं का गद्य लिखता हूँ

    और संतुष्ट हूँ

    कि जानता हूँ प्रकृति को बाहर से

    इसके भीतर क्या है नहीं जानता

    क्योंकि प्रकृति के भीतर कुछ भी नहीं

    कुछ होता तो वह प्रकृति रहती।

    5.

    सब प्रेम पत्र होते हैं

    बेतुके।

    अगर बेतुके होते तो प्रेम पत्र होते।

    अपने ज़माने में मैंने भी लिखे थे प्रेम पत्र

    ऐसे ही एकदम बेतुके

    प्रेम पत्र, अगर प्रेम है,

    वह ज़रूर बेतुका होगा।

    मगर सच यह है

    जिन्होंने नहीं लिखे कभी प्रेम पत्र

    वे हैं बेतुके।

    काश! मैं लौट पाता उस काल में

    जब लिखे थे मैंने प्रेम पत्र

    बिना यह सोचे

    कितना बेतुका था सब कुछ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कविताएँ (पृष्ठ 42)
    • रचनाकार : फ़र्नांदो पेसोआ
    • प्रकाशन : इंडिया टेलिंग
    • संस्करण : 2020

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