Font by Mehr Nastaliq Web

पंख

pankh

मेरे कंधों पर थे पंख नन्हें-नन्हें

माँ की प्रसव-पीड़ा में सिकुड़े-सहमे

मेरे कंधों पर थे जो पंख

धीरे-धीरे मोह की ज़ंजीरों में

बँध गए

मेरे कंधों पर पंख थे

दहशत और नफ़रत के रहते

पलते गए, बड़े होते हुए।

आकाश से बड़े हैं दुख इस धरती के

रोती रही धरती की आँख

पंख भी भीगते गए।

मेरे कंधों पर पंख थे

छाँटने के लिए, उड़ान भरने को

मैं झाड़कर उड़ चली

लेकिन मैं नहीं, केवल पंख मेरे

ये गए, वे गए, छूमंतर हुए।

जाने हाथों में कीलें ठोककर

किसी सलीब पर चढ़ गए

या अकेले, एक-एक करके दूर तक

मरुस्थल में जा बरसे।

मेरे कंधों पर पंख थे—कहाँ गए

कहाँ रह गए?

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 543)
  • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2014

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY