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पहाड़ के ही बारे में

pahaD ke hi bare mein

विवेक भारद्वाज

विवेक भारद्वाज

पहाड़ के ही बारे में

विवेक भारद्वाज

और अधिकविवेक भारद्वाज

    दूर

    कोसों दूर भागती है

    हर चीज़ पहाड़ से—

    बर्फ़ की पिघलन

    वर्षा का जल

    जंगल का सारा मल

    तराई में आकर ठहर जाते हैं

    किनारों पर खादर

    और तटों पर लोग।

    पहाड़ शापित है

    उसका कुछ भी प्रिय नहीं रहता

    उसके समीप।

    उसे सहना होता है वियोग—

    अपनी संपत्ति, संतति और संस्कृति का।

    गुरुत्व बल हो शायद

    या मैदानों की अथाह, अनंत तृष्णा—

    पहाड़ों में उगा फल

    हाटों में बिकता है

    और पहाड़ी फूल मज़दूर चौक पर।

    किसी किसी बहाने

    कभी कभी

    सब उतर ही जाते हैं पहाड़।

    पीछे रह जाता है—

    निर्जन, अकेला, ख़ाली, ख़ामोश मकान,

    वृद्ध, बीमार, खाँसती पीढ़ी

    और सिकुड़ती पगडंडियाँ।

    विरहित, अभावग्रस्त, तनाव में कूढ़ता गाँव,

    शंकित, आशंकित पहाड़,

    अवाक् जंगल,

    वे सभी जो नहीं हिल सकते

    अपनी जगह से—

    एक अन्य शाप के चलते।

    पहाड़ से उतरती हर चीज़

    पलट देती है पत्थर पहाड़ की ओर

    जिसे वे भूलकर भी लाँघना नहीं चाहते।

    वे भुला देना चाहते हैं—

    आरोह की कला।

    नदी तो फिर भी लौट आएगी बरखा बनकर,

    आटा बन कर लौटता है खादर,

    मगर कभी पाहुने बनकर भी नहीं लौटते बेटे।

    वे इतना नीचे उतर आते हैं,

    उतरते-उतरते

    जहाँ से त्रिशूल नज़र आता है—

    जीवंत पहाड़

    जिसे वे महज़ माथा टेककर

    रोप देना चाहते हैं

    अपने बच्चे के संस्कारों में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विवेक भारद्वाज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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