निरंतरता
nirantarta
दरवाज़ा खुलते ही
एक बेहद ख़ौफ़नाक क़िस्म का सन्नाटा
घर के अंदर घुस आता है
और
बम का धड़ाका सुनते हुए
मैं पास लेटी रौशनी को सहलाने लगता हूँ।
इस उम्मीद में
कि वह उठे, बतियाने लगे,
और अँधेरे में बदलते हुए सन्नाटे का तेवर
दीवारों से टकराकर
बच्चों की खिलखिलाहट में
डूब जाए।
(लगे नहीं,
कि भँवर में डूबते हुए आदमी की आख़िरी चीज़ की तरह
मैं
हवा की तरंग पर
अकेले छितरा रहा हूँ।)
तब तक
निर्भेद सोई पत्नी की चूड़ियाँ खनक उठती हैं।
और मैं नाख़ून पर नाख़ून जमाकर
वर्तमान से अपना संवाद शुरू कर देता हूँ।
जब कि,
वर्तमान
ख़ून के आईने में
अपनी शक्ल खोजने में लगा रहता है।
और धरती
गोदी की हरियाली का ख़याल कर
आसमान के सामने बेतरह भीगती रहती है।
- पुस्तक : संचेतना (मार्च-जून 1973) विचार कविता विशेषांक (पृष्ठ 163)
- संपादक : महीप सिंह, नरेंद्र मोहन
- रचनाकार : कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह
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