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निःश्वास

niashvas

अनुवाद : रत्नमयी देवी दीक्षित

वल्लत्तोल

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    हे प्राणेश्वर, आप कौन-सी दिशा में छिपकर

    रहते हैं, अपनी दासी का स्मरण किए बिना?

    मेरी आँखों से इस प्रकार मेरे संसार के मोहन

    चंद्र-बिंब को छिपाने वाली मेघमाला कौन-सी है?

    आपकी दिन-रात पूजा करने वाले अनेक लोग

    हैं, पर मेरे तो इष्टदेव आप अकेले ही हैं।

    विशेष रूप से आपके लिए ही बनाया हुआ

    चमेली का गुलदस्ता आपका अंग-संग पाने से

    बार-बार चंदन-द्रव छिड़कने पर भी

    खिन्न होकर मेरे हृदय के साथ ही मुरझा जाता है।

    जब मैं अपने बाल सँवार रही थी तब

    मेरी चूड़ियों! तुम थोड़ा-थोड़ा रो रही थीं, सो वृथा नहीं,

    क्योंकि यह गुलाब का फूल जूड़े में प्यार के साथ लगाने के लिए

    वह श्रीहस्त अब तक पधारा नहीं।

    हे पवन! तुम मंद स्वर में क्या बोल रहे हो? “लीलोद्यान

    के एक-एक सुंदर लता-विटप में,

    मधुमय शीतल पुष्पों वाले लता-कुंजो में,

    मादक वन में जहाँ पुस-कोकिल मदमत्त होकर गान करते हैं,

    और सुवर्ण-संपुट-आभूषण देकर पुष्करिणी को सजाने वाले

    चंपकवन में भी मैंने खोजा, पर मिले नहीं”—ऐसा

    हाय! मेरी सब आशाएँ व्यर्थ हो गईं! तुम्हारे हाथ सौंपने पर भी

    मेरे निःश्वास उद्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँचे!

    हे कांत! अपनी आँखों से तुम्हारा मृदुहास मैं कब देखूँगी?

    वह मृदुहास प्रेमरूपी सदा-प्रफुल्ल पुष्प का मोहन समुल्लास है

    और सुंदर विशुद्ध सत्त्व-संपत्ति का छोटा-सा अंकुर है।

    वही मेरे सारे जीवन में

    चाँदी का लेप लगाता है—

    नहीं, यह तो केवल धावल्य-क्रिया हुई,

    वह तो सचमुच अमृत ही भर देता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 667)
    • रचनाकार : वल्लत्तोल
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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