नया मेघदूत

naya meghdut

मदन वात्स्यायन

मदन वात्स्यायन

नया मेघदूत

मदन वात्स्यायन

और अधिकमदन वात्स्यायन

     

    पूर्व मेघ 

    अपनी ग्रामीण वधू से युगों से पिछड़ा
    वह यक्ष
    मेमसाहब के फुदकने से उल्लसित बँगले के पास
    कलकत्ते में
    पेट को मारा, जूट मिल का मज़दूर बना रहता है।

    वर्षों से अस्वास्थ्यकर रीति से मिल में खटते-खटते
    उसके दुर्बल हुए शरीर में
    उसकी घराऊ सदरी बहुत ढीली पड़ती थी।
    बरसात में एक रोज़।
    कारख़ाने की चिमनी के ऊपर
    धुएँ के गुब्बारे की तरह मेघ को घिरा देख कर
    उसे वर्षों के बाद अपनी घरवाली की याद हो आई

    ओसारे पर बैठ कर उसने एक बीड़ी जलाई
    और दीवार से उठंग कर
    मेघ की ओर धुआँ फेंक कर बोला—
    मेघ! तुम मेरे गाँव भी जाओगे?
    यदि हाँ, तो मेरी राय है कि न जाओ,
    क्योंकि वहाँ का दृश्य देख
    तुम्हारा पानी-सा दिल सूख जाएगा।
    लेकिन मेरे कहने से क्या,
    तुम तो जाओगे ज़रूर ही,
    तो जाओ।
    लेकिन रास्ते में क्या देखोगे
    यह संक्षेप में सुन लो
    ताकि धक्का दिल को ज़्यादा न लगे।

    मैं जब अपने गाँव के हाई स्कूल में पढ़ता था तब पढ़ा था कि
    कलकत्ते से उत्तर-पूरब की ओर बढ़ते हुए तुम
    नीले पानी और हरे खेतों से चितकबरी बनी
    इहकालीन भारतीय क्रांति की जन्मदात्री
    (आज खंडिता)
    बंग भूमि
    और चाय और नारंगी के खेतों को देखते हुए
    अंत को कामख्या पहुँचे हो।
    रामी चाची बचपन में मुझसे कहा करती थी
    कि हमारी तरफ़ के मर्द जब 'पुरुब' कमाने जाते हैं
    तो 'कामर-कमच्छा' की जादूगरनियाँ उन्हें भेड़ बना कर रख लेती हैं।
    चाची को यह न पता था कि कलकत्ते में भी
    हिंदुस्तानी और अँग्रेज़ तितलियों को पालने वाले
    धन के जादूगर काले और गोरे सेठ और साहब
    हमारी तरफ़ के हज़ारों मज़दूरों को भेड़-बकरियाँ बना कर रखे रहते हैं।

    कामाख्या से पश्चिम मुड़ कर
    दार्जिलिंग के ऊपर होते हुए
    तुम मेरे सूबे के ऊपर पहुँच जाओगे।
    ईसवी 1919 से लगातार यह हिंदुस्तान की स्वतंत्रता की लड़ाई में
    सबसे आगे रहा था।

    1942 के तुमुल विद्रोह में इसकी गंगा-तलहटी का शायद ही कोई
    पुलिस-थाना होगा जिस पर जनता ने आक्रमण न किया हो, और
    क़ब्ज़ा न कर लिया हो या जहाँ गोलियाँ न खाई हों।
    यहाँ के किसानों और मज़दूरों ने अपने अधिकारों के लिए अपने शोषकों
    के ख़िलाफ़ ख़ूब लड़ाइयाँ लड़ी हैं।
    और लड़ाइयाँ वे आज भी लड़ रहे होंगे।

    उत्तर में कोसी नदी के दोनों ओर देखोगे—एक अपार जलराशि,
    और दक्षिण में गंगा के पार एक मंदारगिरि।
    यह वही मंदारगिरि है जिससे मथ कर समुद्र से चौदह रत्न
    निकाले गए थे।

    तुम कहीं उत्तर वाली जलराशि को समुद्र मत समझ लेना,
    क्योंकि समुद्र नहीं, कोसी की बाढ़ का पानी है
    और इसे मथने पर शायद चौदह बीमारियों के कीटाणु भर निकलेंगे
    तुम देखोगे दुबले-पतले, अध-नंगे, रुग्ण लोग
    जो धान और पटुए के खेतों में काम करते।
    लेकिन ख़बरदार, इन्हें साधारण न समझ लेना।
    यह अंग देश है
    जहाँ का कर्ण महाभारत में सूर्य की तरह चमकता है
    और जहाँ अभी 1942 में सुपौल के क्षेत्र के नाम से
    अँग्रेज़ी नौकर-शाही थर्राती थी।

    पश्चिम बढ़ते हुए (तुम्हारे लिए यह टेढ़ा तो पड़ेगा मगर) दक्षिण घूम कर देवघर
    नगरी को देखना न भूलना
    यह मेरे सूबे की उज्जयिनी है।
    बहुत-से बंगाली 'भद्र लोक' अपने जीवन-व्यवसाय की समाप्ति होने पर
    अपने संचित अर्थ से यहाँ बड़े-बड़े प्रासाद बना सुख-उपभोग करते हैं।
    देवघर के चारों ओर छोटे-छोटे सुंदर पर्वत हैं
    जिनकी ओर संध्या-समय विविध शृंगारों से सजी (बंगालिन) सुंदरियों
    का ज्वार उमड़ रहा होगा।
    तुम्हें ऐसा दृश्य मेरे सूबे में और कहीं देखने को न मिलेगा।
    क्योंकि वहाँ के ख़ुशहाल घरों की स्त्रियाँ घर के पिंजड़ों में बंद
    रहती हैं।

    देवघर में एक छोटी नदी जमुना-जोर है
    और है वैद्यनाथ का विशाल मंदिर।
    देवघर मेरे सूबे की उज्जयिनी है।
    नगरों की समृद्धि का वर्णन करने में महाकवि लोग कुछ बातें भूल जाते हैं,
    पर तुम देवघर में उन बातों पर गौर करना न भूलना—
    जमुना-जोर के एक ओर संभ्रांत बंगालियों का स्वर्ग है,
    और दूसरी ओर निर्धन स्थानिकों का नरक।

    तुम कुछ और दक्षिण-पश्चिम अगर बढ़ो
    तो दामोदर नदी के क्षेत्र में पहुँच जाओगे।
    यह नदी हमारे देश की नई औद्योगिक सभ्यता की सरस्वती है
    (नए-नए बाँधों के कारण बनी झीलें ही जिसके ‘सरस्' हैं),
    और यह क्षेत्र मानो कुबेर का गाड़ कर धरा ख़ज़ाना है।
    यहाँ एक ओर देखोगे
    महासेठों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ
    ओहदा शाहों के बड़े-बड़े बँगले,
    उनकी चमचमाती लंबी-लंबी मोटरें।
    और दूसरी ओर,
    ख़ानों से, कारख़ानों से, टूटी झोंपड़ियों से निकलते
    सुअर जैसे नंगे, सुअर जैसे गंदे और सुअर जैसे विकृत शरीर वाले
    पाँव घसीटते मेरे सूबे के लोग।
    इसलिए यह वैभवशाली क्षेत्र मेरे सूबे की किस्मत पर नियति के व्यंग्य
    अट्टहास है।

    सुदूर दक्षिण में झारखंड है
    जहाँ के लोगों ने अपने अधिकांश भू-भाग को
    हज़ार वर्ष पहले से अँग्रेजों के आने तक बराबर स्वाधीन रखा,
    जहाँ आक्रमणशील अँग्रेज़ों को भी बार-बार मुँह की खानी पड़ी,
    और जहाँ साठ ही साल पहले 'विरसा भगवान' के नेतृत्व में
    लोगों ने अपना मुक्ति-विद्रोह किया था,
    स्वराज के लिए अँग्रेज़ी तख़्त के ख़िलाफ़ यह भारतीयों की पहली
    बड़ी क्रांति थी।

    आज वहाँ की नगरी राँची में
    हँसते, बातें करते, हाँफते, पसीना बहाते रिक्शेवाले
    धनी-मानी युगल-जोड़ियों को
    बड़े-बड़े मकानों की ओर लिए जा रहे होंगे।
    लेकिन तुम तो मेरी बात मान कर दक्षिण मुड़ोगे नहीं।
    तुम तो जाओगे पश्चिम ही,
    तो अब तुम्हारे दाहिने होगी मिथिला।
    यह बड़ी मिथिला है जहाँ भगवान बुद्ध से पहले ही आम लोगों ने
    शोषण के ख़िलाफ़ तुमुल-ध्वनि उठाई थी।
    और विप्लव करके विदेह-राजसत्ता का ध्वंस कर फिर से सच्चा
    प्रजातंत्र स्थापित किया था।

    जहाँ 1942 में लोगों ने अँग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
    यह तिरहुत ‘भारत का उद्यान' कहा जाता है।
    इसमें आम, लीची, केले, धान, ईख आदि के हरे-भरे बाग़ और
    खेत लहलहा रहे होंगे।
    पर उस स्वर्गभूमि पर देखोगे अधनंगा, आधा भूखा, एक विशाल
    जन समूह।

    अन्नपूर्णा के आँगन में अकाल।
    गंगा के तीर पर प्यास से तड़प-तड़प कर मौत।
    लक्ष्मी की गोद में नंगे शिशु।
    —फ़ाइल-तंत्री 'समाजवाद'।

    तुम्हारे बाएँ मगध होगा
    जिसका इतिहास हजार वर्ष तक भारत वर्ष का इतिहास रहा
    और जहाँ 1942 में एक नया गौरवपूर्ण इतिहास बना था।
    वहाँ के मुख्य नगर पटना में
    एक बुद्धमार्ग है।
    जिस पर बौद्धकालीन समृद्धि का लेश भी नहीं,
    सिर्फ़ मुर्दे पर मुर्दे, मानो, निर्वाण-पथ पर ढोए जाते होंगे।
    बुद्धमार्ग और अशोक राजपथ की संधि के पार्श्व में गोलघर है
    फ़ाइल-घर नौकरशाहों की धारणाओं-सा गोल-मटोल, उनकी योजनाओं-सा
    निष्प्राण और उनकी ईमानदारी-सा कार्ड से पुता,
    जनता के हित में उनकी कृतियों के लड्डू-सा।

    बुद्धमार्ग को काटता अशोक राजपथ,
    सँकरा, धूल-भरा, गंदा,
    चला जाता है जिधर मौर्यों के राजप्रासाद के स्थान पर एक गंदा पानी
    भरा गड्ढा है।

    आगे बढ़ कर तुम भोजपुरी क्षेत्र में पहुँचोगे—
    जहाँ गाँधी जी ने अँग्रेज़ी नौकरशाही के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन का
    श्रीगणेश किया था,
    और किया था जहाँ के विश्वामित्र ने वशिष्ठ ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़
    आर्यों और अनार्यों का नेतृत्व।
    जहाँ के शेरशाह ने विदेशी मुग़ल को खदेड़ कर देश में
    सांप्रदायिक एकता और अकबरी सुव्यवस्था की नींव रखी,
    और जहाँ के देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के
    प्रथम राष्ट्रपति हुए।
    जहाँ 1857 में जनता ने अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाए थे,
    और जहाँ के लड़ाकों पर
    1942 में हवाई जहाज़ से गोलियाँ बरसाई थीं।

    तुम देखोगे—
    कहीं मज़दूरों का थका-माँदा चूर-चूर दल
    छिटका-फुटका जा रहा होगा,
    जिनमें भूख की आग इतनी तीव्र है
    कि विरह जल कर ख़ाक हो गया है।
    तुम्हें देख कर वह दल 
    जल्दी-जल्दी अपने सूने ‘वासों' की ओर चल पड़ेगा।
    कहीं कुछ भिखमंगे अपनी अविवाहित स्त्रियों के साथ चले
    आ रहे होंगे।

    शायद उन स्त्रियों को परकीया कहना तुम्हें ज़्यादा अच्छा लगे
    क्योंकि तुम उन्हें परकीया कहने का तिक्त मज़ाक न समझ सकोगे।
    तुम्हें देख कर वे पेड़ों के नीचे छिप जाएँगे
    और तुम्हें कोसेंगे।
    कहीं शहर से आने वाली राह पर
    थके-माँदे किसान,
    सरकारी दफ़्तरों में मालगुज़ारी अदा कर या मुक़दमे लड़ कर,
    हाथों में जूते लिए,
    (ताकि जूते बचें और पैर न कटे)
    चले आ रहे होंगे,
    तुम्हें देख कर उन्हें घबराहट होगी।

    उत्तर-मेघ

    वहीं कहीं होगा मेरा गाँव—अलकापुर।
    मेरे गाँव को पहचानने में तुम्हें ज़्यादा दिक्क़त नहीं होगी।
    वहाँ एक बहुत बड़ा ढूह है
    जो, शायद, मल्लों के पंचायती राज के युग का है।
    गणतंत्र के इस ढूह पर
    हमारे गाँव के पूँजीपतियों ने बड़े-बड़े महल बना रखे हैं।
    इनकी दीवारें कुछ-कुछ गिरने लगी होंगी।
    ढूह के नीचे तुम पाओगे
    चारों ओर, दूर तक
    छोटी-छोटी फूस की झोंपड़ियों का समूह।
    ऊपर से देख कर तुम्हें ऐसा मालूम होगा।
    मानो यह किसी सेना का पड़ाव है
    जो ढूह पर के क़िलों पर घेरा डाले हुए है,
    और जिसके आघात से
    क़िले की दीवारें ढह रही हैं।
    अगर इस साल ज़ोरों की बाढ़ न आई होगी
    तो पूँजीपतियों के ढूह से कुछ दूर उत्तर की ओर
    ताड़ के पेड़ों के एक झुंड के पास
    मेरा घर होगा—
    जिसके आँगन में गेंदा और तुलसी के दो-चार पौधे लगे होंगे।

    मेरी यक्षिणी को पहचान पाओगे या नहीं?
    शायद नहीं ही पहचान पाओगे।
    लेकिन अगर किसी तरह पहचाना
    तो जानते हो, क्या देखोगे?

    अगर तुम अलस्सुबह पहुँचे—
    तो उस एक घर वाली मडैया के द्वार पर
    एक अधवैस खड़ी होगी,
    अकेली,
    काम पर जाने की तैयारी में,
    शहर से आने वाली राह की ओर देखती,
    इसलिए नहीं कि अब भी मेरा वियोग उसे सता रहा है।
    बल्कि इसलिए
    कि जवानी भर इधर देखते-देखते उसे आदत पड़ गई है।
    वह आज भी गोरी, सुंदर और स्वस्थ होगी
    क्योंकि मुझसे अलग रहने की वजह से
    उसे बार-बार गर्भधारण करना नहीं पड़ा है।

    अगर तुम रात को पहुँचे
    तो काम की थकावट से चूर वह सोई हुई होगी,
    तो उस समय
    कृपया उसे गरज कर डरा न देना,
    नहीं तो एकाएक आधी रात को छप्पर चूने के डर से
    बेचारी का बुरा हाल हो जाएगा।
    और अगर दिन में पहुँचे
    तो शायद, कभी अचौके
    उसे एक कड़ी गाते हुए काम करते पाओगे—
    'निरमोही सिपाही हो राजा, छाइ रहेल कौन देस।'
    —निरमोही सिपाही हो राजा, छाई रहेल कौन देस।
    —निरमोही।
    है न मेघ?

    शाम को,
    सिर पर बोझा लिए
    बड़ी सुंदरता से पदन्यास करती
    वह भीत हंसिनी की चाल से झपटती लौटी जा रही होगी।
    तो, मेघ! संदेश क्या भेजें?
    विरह-निवेदन?
    उसकी तो उम्र ही बीत गई चुपचाप।
    यह नहीं।

    तो क्या कुशल-मंगल?
    उहुँक्! 
    कुशल क्या? मंगल क्या?
    नहीं मेघ।

    रुपया भेजने का वादा?
    जब इन सत्रह वर्षों में लाख सर पटकने पर भी कुछ बचा कर
    न भेज सका
    तो आज असंभव वादा क्या भेजूँ?

    और फिर संदेश भेजूँ भी किस मुँह से
    जब मेरी घरवाली का स्थान बुधिया ने ले रखा है।
    और हम दोनों को दो बच्चे भी हो चुके हैं!
    जाओ मेघ, तुम जाओ,
    मेरी फ़िक्र न करो।
    भगवान तुम्हारा भला करे,
    अपनी प्यारी बिजली से तुम्हारा कभी ऐसा वियोग न हो!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शुक्रतारा (पृष्ठ 138)
    • रचनाकार : मदन वात्स्यायन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2006

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