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नई आँधियाँ

nai andhiyan

बलराम कांवट

बलराम कांवट

नई आँधियाँ

बलराम कांवट

और अधिकबलराम कांवट

    जब भी उठती हैं

    धरती पर आँधियाँ

    दीवार की ओट में

    जीवन बैठ जाता है

    आकाश में उड़ते पखेरू

    उतर आते हैं नीचे वृक्षों पर

    जंगलों और पहाड़ियों में डोलते जीव

    अपनी खोहों में सिमट आते हैं

    पेड़-पौधे हाथ पकड़कर देते हैं

    एक-दूसरे को सबसे मुश्किल घड़ी का आसरा

    मनुष्य भागकर भेड़ता है

    खिड़की-दरवाज़े

    ये आँधियाँ

    घरों की ओर लौटती पगडंडियों से

    हमारे होने के निशान बुहार जाती हैं

    ऐसे घोर अंधड़ों में

    किसी की कोई थाह नहीं लगती

    सब असहाय से दुबके रहते हैं

    अपनी शरणगाहों में

    और तूफ़ान के थमने की

    केवल प्रतीक्षा करते हैं

    इस प्रतीक्षा में होता है

    गहरा धैर्य

    और यह विश्वास कि

    यह संकट नहीं बरपा है

    पृथ्वी पर सदा के लिए

    इसमें अवश्य ही होगी कुछ हानि

    कुछ अभागे पक्षी ज़ख़्मी होंगे

    कोई पशु बिछड़ जाएगा अपने साथी से

    कुछ पेड़ उखड़ जाएँगे

    कुछ हार मानकर लेट जाएँगे

    लेकिन वे घुटनों पर हाथ रखकर वापस खड़े होंगे

    यह विश्वास बना रहता है

    खोया हुआ साथी पुनः मिलेगा अपने साथी से

    यह विश्वास बना रहता है

    इस कठिन समय में

    जंगल में दूर किसी टहनी पर झूलती बया

    अब तक इसी भरोसे पर सहती आई है

    इस विपदा को

    कि थोड़ी देर बाद

    अपने आप थमेगी उसकी काया

    खेत में देह चिपकाए बैठी टिटिहरी

    अच्छी तरह जानती है

    थोड़ी देर बाद

    अपने आप दिखेगा आकाश में चाँद

    बबूलों के नीचे खड़े रोजड़े

    आश्वस्त हैं कि फिर से विचरेंगे वे इन घाटियों और मैदानों में

    पगडंडियाँ जानती हैं

    फिर से बनेंगे किसी पनिहारिन के

    पाँव के निशान उन पर

    जैसे हर दुःख का निकल ही आता है

    कोई कोई निवारण

    इसका निदान भी मिल ही जाता है

    और अंततः एक रोते हुए बच्चे की तरह

    सुबकते-सुबकते

    सब कुछ शांत हो ही जाता है

    सबकी साझा स्मृतियाँ

    अब तक यही कहती आई हैं

    और यही होता आया है

    लेकिन अब उन स्मृतियों की मृत्यु का समय है

    अब यह नई आबोहवा का समय है

    अब मुश्किल है जीवित रहना

    उन्हीं पुरानी आस और उम्मीदों पर

    अब नई आँधियों से

    आँख मिलाने का समय है

    मैं अपनी देखी हुई

    सबसे तेज़ आँधी में अटका हूँ

    पचवारे के किसी रास्ते में

    और एक तिबारे में

    उकड़ू बैठे

    आँखें मींचे सोच रहा हूँ

    अब इन आँधियों की चाल

    पहले से कितनी तेज़ है

    इनकी आवाज़ें

    कितनी भयावह

    ये आँधियाँ आती हैं

    पहले से बहुत ज़्यादा समय के लिए

    और आसानी से लौटने का

    नाम नहीं लेतीं

    मैं उस पुराने भरोसे के बारे में सोचता हूँ

    जिसके सहारे

    हम कैसी-कैसी आँधियाँ सह लेते थे

    लेकिन क्या होगा

    जब नहीं रहेगा यह विश्वास

    और लगेगा कि हमारे जीते जी नहीं थमेगी

    यह तेज़ बयार

    साँझ हुए भी

    हम नहीं पहुँचेंगे

    अपने द्वार

    हमारे आकाश में उठने तक

    नहीं बैठेगा

    यह धूल का ग़ुबार!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बलराम कांवट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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