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नदी होने से ठीक पहले

nadi hone se theek pahle

शैरिल शर्मा

शैरिल शर्मा

नदी होने से ठीक पहले

शैरिल शर्मा

और अधिकशैरिल शर्मा

    तुम्हें देखती हूँ तो

    देर तक देखती रहती हूँ

    इतना की आंखों के कोर में

    कहीं रह जाता है अक्स

    सुनती हूँ तो

    सुनती रह जाती हूँ

    कान में देर तक बजते रहते हैं शब्द

    परस नेह की नर्माहट लिये हो

    तो त्वचा की अंतिम परत से होता हुआ

    आत्मा की साँकल खटखटाता है

    आँख भी भेदती है मन

    मौन से भी होते हैं संवाद

    चाह जीवन के हर उस रास्ते की जननी है

    जिस पर हम चलते हैं

    मजबूरियों जैसा कुछ नहीं होता

    सब चाहना का अभाव है

    घाव पूरी तरह भरे थे पर

    टीसना बंद कर चुके थे

    हाथ लगाओ तो

    किसी सतह से ही जाती थी

    आह!

    अभी कोई बहुत पुरानी घटना थी

    सोचा जाए तो लगता

    मानो कल की ही हो

    अब उससे कोई फ़र्क़

    पड़ता भी था पर वह सामने बैठी हुई

    कामिनी का भय भाँप गई

    दुश्मन होने से ठीक पहले

    स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दोस्त रही

    ‘बारहमासा चिड़चिड़ापन-सा लगा रहता है,

    यंत्र-सी कार्यों की पूर्ति के काजे चल पड़ती हूँ।’

    जब तक देह में बिजली है

    रगों में दौड़ती रहेगी ही

    वो जानती थी कारण

    पर चुपचाप सुन रही थी

    चाहती तो कह देती

    नदी, नदी होने से ठीक पहले

    पहाड़ होती है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शैरिल शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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