तुम्हें देखती हूँ तो
देर तक देखती रहती हूँ
इतना की आंखों के कोर में
कहीं रह जाता है अक्स
सुनती हूँ तो
सुनती रह जाती हूँ
कान में देर तक बजते रहते हैं शब्द
परस नेह की नर्माहट लिये हो
तो त्वचा की अंतिम परत से होता हुआ
आत्मा की साँकल खटखटाता है
आँख भी भेदती है मन
मौन से भी होते हैं संवाद
चाह जीवन के हर उस रास्ते की जननी है
जिस पर हम चलते हैं
मजबूरियों जैसा कुछ नहीं होता
सब चाहना का अभाव है
घाव पूरी तरह न भरे थे पर
टीसना बंद कर चुके थे
हाथ लगाओ तो
किसी सतह से आ ही जाती थी
आह!
अभी कोई बहुत पुरानी घटना न थी
सोचा जाए तो लगता
मानो कल की ही हो
अब उससे कोई फ़र्क़
पड़ता भी न था पर वह सामने बैठी हुई
कामिनी का भय भाँप गई
दुश्मन होने से ठीक पहले
स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दोस्त रही
‘बारहमासा चिड़चिड़ापन-सा लगा रहता है,
यंत्र-सी कार्यों की पूर्ति के काजे चल पड़ती हूँ।’
जब तक देह में बिजली है
रगों में दौड़ती रहेगी ही
वो जानती थी कारण
पर चुपचाप सुन रही थी
चाहती तो कह देती
नदी, नदी होने से ठीक पहले
पहाड़ होती है।
- रचनाकार : शैरिल शर्मा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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