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द्वापर से आज तक

dvapar se aaj tak

अरविंद यादव

अरविंद यादव

द्वापर से आज तक

अरविंद यादव

और अधिकअरविंद यादव

    द्वापर अद्यावधि के पूर्व वह कालखंड

    जो अनीति, अन्याय, अनधिकार और

    क़त्ल होते रिश्तों

    सदियोपरांत स्त्री-अस्मिता के हरण का उदाहरण

    एवं मृत मानवीय संवेदनाओं से उपजे महायुद्ध

    जैसे अनगिनत लांछनों को समेटे

    दर्ज है इतिहास के पन्नों में

    वह महायुद्ध जो अभिहित है इतिहास में

    संज्ञा से धर्मयुद्ध की

    उसी के अनगिनत अधार्मिक, अमर्यादित कृत्य

    चीख़-चीख़कर कह रहे हैं कहानी

    राज्यलिप्सा के उस अंधेपन की

    जो विद्यमान थी दोनों ही पक्षों में

    किसी में कम किसी में ज़्यादा

    ख़ून से लथपथ कुरुक्षेत्र की वह धरती

    जहाँ पाञ्चजन्य-महाघोष के साथ

    उस महामानव की उपस्थिति में

    अठारह दिन अठारह अक्षौहिणी सेना

    जिसकी नृसंशता और संहार

    क्षत-विक्षत शवों पर अबलाओं की चीत्कार

    दिखाती है मृत मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा

    आज सहस्राब्दियों के बाद भी

    सुनाई पड़ रही है उसकी पदचाप

    दिखाई पड़ रही है पुनरावृत्ति उन वृत्तियों की

    जो निमित्त थीं उस महायुद्ध कीं

    जिसमें मानव ही नहीं कुचली गई थी मानवता

    सत्ता की अंधी दौड़ में

    आज भी द्वापर की तरह

    सिंहासन ही है प्रमुख अभीष्ट

    शासकों का येन-केन-प्रकारेण

    आज भी बेपरवाह हैं शासक

    उचितानुचित, धर्माधर्म, नीति-अनीति से

    सत्ता के मद में

    आज भी चारों नीतियाँ और चारों स्तंभ

    खड़े हैं हाथ बाँधे सामने सत्ता के

    करने को उसका पथ प्रशस्त

    लगाकर अपनी अपरिमित सामर्थ्य

    आज भी फेंके जा रहे पासे

    ताकि हराई जा सके मानवता

    आज भी अश्वत्थामा

    कर रहे हैं दुरुपयोग अपनी सामर्थ्य का

    आज भी की जा रही है पुरज़ोर कोशिश

    ताकि जलाया जा सके लोकतंत्र

    भ्रष्टाचार के लाक्षागृह में

    आज भी जाने कितने दु:शासन

    रोज़ करते हैं चीरहरण

    कितनी ही द्रोपदियों का

    और वह कौरवी सभा जिसमें विराजमान

    बड़े-बड़े महारथियों को सूँघ गया था साँप

    दिखाई देती है होती हुई प्रतिबिम्बित

    आज भी भीरु समाज में

    इतना ही नहीं सत्ता के संरक्षण में

    स्त्री-अस्मिता के हरण की वह घृणित मानसिकता

    चीरहरण को उद्यत वह क्रूर हाथ

    और बेबस अबला के आँसुओं पर

    मानवता को शर्मसार करती

    वह निर्लज्ज हँसी

    बदस्तूर जारी है द्वापर से आज तक

    आज भी रचे जा रहे हैं साज़िशों के चक्रव्यूह

    ताकि लहराता रहे उनका ध्वज

    बचा रहे उनका सिंहासन

    इसलिए वह चाहते हैं उलझाना

    आज के अभिमन्यु को

    जाति, धर्म, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र, और राष्ट्रवाद के अभेद द्वारों पर

    आज भी जाने कितने सूतपुत्र

    अभिशप्त हैं पीने को अपमान का वह घूँट

    जिसे श्रेष्ठ धनुर्धर दानी होने के बावजूद

    पीता रहा ताउम्र, सूतपुत्र नियति मानकर

    आज भी मिल जाते हैं अनायास

    गुरु द्रोण तथा एकलव्य

    और उस परंपरा का अनुसरण करते पदचिह्न

    पितामह भीष्म की वह असहायता

    भरी सभा में कौरवी अनीति का वह मौन समर्थन

    जिसे देख झुक जाती हैं आँखें इतिहास की

    आज भी शर्म से

    दिखाई देती है सदियों के बाद भी

    उन बेबस लाचार बूढ़ी आँखों में

    लेटे हुए मृत्यु-शैय्या के निकट

    सभ्यता और प्रगति का ढिंढोरा पीटने वालो

    हम खड़े हैं आज भी वहीं

    जहाँ हम खड़े थे हज़ारों साल पहले

    भविष्य जब भी कसेगा हमें

    इतिहास की कसौटी पर

    तब निश्चित ही खड़ा करेगा प्रश्नचिह्न

    हमारी प्रगति पर

    हमारे सभ्य होने पर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरविंद यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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