यह पहला मौक़ा नहीं था

ye pahla mauqa nahin tha

राकेश रंजन

राकेश रंजन

यह पहला मौक़ा नहीं था

राकेश रंजन

और अधिकराकेश रंजन

    क्या तुम क़ासिम हो?

    मंदिर के बाहर मैंने पूछा

    तो अचानक वह चौंक गया

    देखने लगा मुझे अवाक्

    बारह-तेरह साल का लड़का

    जो बेच रहा था धूप-दीप

    और अगरबत्तियाँ

    क्या तुम सलीम दरजी के बेटे हो?

    मैंने फिर पूछा

    आप कैसे जानते हैं?

    धीरे से, सकपकाकर पूछा उसने

    तुम्हारे चेहरे से लगा मुझे

    तुम्हारे अंदाज़ से

    मैंने कहा और देखा

    उसके चेहरे पर गहरी आशंका थी

    वह खड़ा था पसीने से लथपथ

    रंगे हाथ पकड़ में आए किसी चोर-सा

    अपने लोग पहचान में जाते हैं बाबू

    मैंने उसका कंधा थपथपाया

    चाहे वे कहीं रहें, कुछ करें

    आँखें पहचान लेती हैं अपना अज़ीज़

    मैंने उसका माथा सहलाया और कहा

    बेटाजान

    क्या हिंदू क्या मुसलमान

    प्यार से बड़ा और मेहनत से अलग

    कौन-सा दीन कौन-सा ईमान

    मैंने देखा, वह बिलकुल आश्वस्त नहीं था

    उसकी आँखों में भरा था ख़ौफ़

    मुझे माफ़ कर दें

    उसने धीरे से कहा

    यह ग़लती फिर नहीं होगी, वह रोता हुआ बोला

    मैं कुछ कहता इससे पहले वह भागा

    जैसे पुलिस की गिरफ़्त से छूटकर भागा हो मुजरिम

    अपनी आशंका से

    मेरे संवेदन

    और सद्विचार की धज्जियाँ उड़ाता हुआ

    वह भागा

    और भीड़ में ग़ायब हो गया

    यह पहला मौक़ा नहीं था

    जब इस प्रकार हतप्रभ था मैं

    जब नहीं समझा गया था भरोसे के क़ाबिल

    वक़्त ही ऐसा है कि हर वक़्त

    हर कहीं देखा जाता हूँ भय और संशय की नज़र से

    जानी-पहचानी चीज़ों

    और राहों के बीच से गुज़रता हूँ

    असमंजस से भरा हुआ

    जो सबसे अपना है, सबसे अज़ीज़

    उससे भी पूछते सहमता हूँ

    क्या तुम्हीं हो वह आदमी?

    यह पहला मौक़ा नहीं था मित्रो

    यह पहली पराजय नहीं थी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राकेश रंजन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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