लगाबू खूब नारा
जखन कि
समाजक प्रबुद्ध लोक
अपन मुँहमे
जाबी लगा लैत अछि
आ भए जाइत अछि
मतरसुन्न
तँ ईश्वरो
बदलि लैत अछि
अपन मोन मिजाज
रीति आ नीति
ओ नहि खुश होयत अछि
मन्दिरक घंटी आ
मस्जिदक अजानसँ
ओ नहि खुश होइत अछि
सुख, शांति, मित्रता
आ बंधुत्वसँ
ओकरा चाही
पियास मिझाबैक लेल
मनुष्यक लाल टुह-टुह
गरमा-गरम खून
सुनबाक लेल चाही
जुलुसक उन्माद भरल नारा
खन-खन बाजैत
तरुआरिक ध्वनि
देखैक लेल चाही
छटपटाइत हाथ-पयर
अलग रुण्डसँ मुण्ड
खेलेक लेल चाही
लहासपर कबड्डी
एहन खुनीमा समयमे
अपना सभ
चुपचाप बैसल
किये छी भाइ
अपनो सभ उठा लिअ
कोनो झंडा
हिन्दू-मुसलमान केर
अगड़ा-पिछड़ाक
लगाबू खूब नारा
आ भाँजू तरुआरि
ताकि देबताक कुर्सी
डोलय नहि
रहय एक छत्र राज
जुग-जुग धरि।
- पुस्तक : परिचय बनैत शब्द (पृष्ठ 63)
- रचनाकार : मुख्तार आलम
- प्रकाशन : मुख्तार आलम
- संस्करण : 2021
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