मुझे तुम्हारे कालेपन पर प्यार आता है

mujhe tumhare kalepan par pyar aata hai

रमणिका गुप्त

रमणिका गुप्त

मुझे तुम्हारे कालेपन पर प्यार आता है

रमणिका गुप्त

और अधिकरमणिका गुप्त

    मुझे तुम पर प्यार आता है

    तुम्हारे रूप-रंग पर नहीं

    तुम्हें देखकर मेरा बनैला प्यार

    जग जाता है

    जैसे तुम्हारे भीतर जग रहा है एक आदमी

    वहशत से जूझने के लिए

    मुझे इस जगने पर प्यार आता है

    तुम्हारे उसी आदमी पर प्यार आता है मुझे

    जो सदियों से सोया था तुम्हारे भीतर

    जो पुश्तों-पीढ़ियों से खोया था तुम्हारे अंतर्मन में

    जो था परंपरा से अछूत

    जो जगा है आज

    एवरेस्ट की चोटी लाँघ जाने का दम भरने लगा है

    आज़ादी की कुलाँचें भरने लगा है

    जंगलों में मुँह मारने लगा है

    मुझे उन कुलाँचों पर प्यार आता है

    तुम्हारे काले खुरदुरे हाथ

    नहीं जगाते थे एहसास

    ही होता था रोमांच

    लेकिन इन हाथों ने जब से

    मिट्टी को लेकर

    मुट्ठी बाँधी है

    हर अन्याय पर चोट करने की क़सम खा ली है

    वर्ण के विष को नकार

    मिट्टी को मोती की

    पसीने को रक्त की

    प्रतिष्ठा देने की ठानी है

    तब से हाँ-हाँ तब से

    इस मुट्ठी की जकड़ से

    देह में झुरझुरी पैदा हो जाती है

    मुझे

    तुम्हारे इस कालेपन पर प्यार आता है

    तुम काले हो

    जाने कितनी सदियों की

    दासता कुंठा यातना ग्लानि और अपमान

    झुलस कर समाए हैं इस कालेपन में

    जाने प्रकृति और भूगोल ने

    कितने लावों की जलन लेकर

    तुम्हें काला बनाया था कि

    सदियों की बरसातें

    करुणा की बाढ़ भी धो पाई

    तुम्हारी यातना की कालिख

    जो तुम्हारे मुँह पर पुती है

    पर जब तुम्हारा कालापन शर्माता है

    तो सफ़ेद बादल चमक उठते हैं

    तुम्हारे होंठों के बीच

    मुझे उन बादलों पर प्यार आता है

    तुम भी ख़ूब हो

    तुमने अपने इस ‘कालेपन’ में

    जगा दिया है ऐसा विश्वास गाढ़ा

    पैदा कर दी है

    प्रेरणा की ऐसी जलती लपट

    ऐसी चमक ऐसी ऊष्मा

    कि उसके मुक़ाबिल

    गोरी चिट्टी चमड़ी

    गदराई देह

    सूनी ठंडी बेजान

    लगने लगती है

    मुझे तुम्हारे इस कालेपन पर प्यार आता है

    तुम्हारे काले माथे पर

    चिंता की मोटी-काली लकीरें जब

    उभर आती हैं, छू जाती हैं देह

    तो

    मुर्दा देह में प्राण जग जाते हैं

    शिला

    अहल्या बन जाती है

    और वहशी आदमी

    और समर्पित हो जाती हूँ धरती-सी मैं

    तुम्हें

    जिसने सदियों से

    समर्पित होना ही सीखा था

    मुझे तुम्हारे उस कालेपन पर प्यार आता है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : आदिवासी कविताएँ (पृष्ठ 31)
    • रचनाकार : रमणिका गुप्ता
    • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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