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मुझे कठोरता से नहीं, कोमलता से विदा करना।

mujhe kathorta se nahin, komalta se vida karna.

प्रमिला शंकर

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प्रमिला शंकर

मुझे कठोरता से नहीं, कोमलता से विदा करना।

प्रमिला शंकर

और अधिकप्रमिला शंकर

    मेरी अंतिम यात्रा में

    जब तुम आओ—

    तो मत ओढ़ना चेहरे पर

    वही पुराना

    सामंती रुआब,

    माथे पर लाना

    वे तिरछे बल की शिकन

    उस दिन

    थोड़े सरल हो जाना,

    थोड़े सहज

    होंठों पर रख लेना

    एक उजली-सी मुस्कान—

    नम नहीं, भारी नहीं,

    बस

    स्निग्ध और हल्की

    जैसे कोई

    देर तक रो चुका हो

    अब बस मुस्कान बाकी हो

    मुझे जाते हुए

    तुम देखना खिलती रेखा में—

    एक रौशनी की सीढ़ी पर चढ़ते हुए।

    और जब

    वापस लौटने लगो—

    एक काम और करना

    अपनी सारी उलझनें,

    थकानें,चिंताएँ,

    उन अधूरी शिकायतों की पोटली

    जो कभी मुझसे नहीं कह पाए

    सब मेरी चिता की अग्नि में

    होम कर देना।

    मैं चाहती हूँ—

    तुम खाली होकर लौटो,

    हल्के।

    बिलकुल वैसे ही

    जैसे मैंने चाहा था

    तुम्हारा जीवन तुम्हारा हो—

    मुझसे मुक्त,

    पर स्मृति में कोमल।

    तुम्हारी अंतिम यात्रा में

    मैं आया था—

    बिना रुआब,

    बिना वो पुराने माथे के बल

    जो तुम नहीं चाहती थीं।

    मैंने अपने चेहरे पर

    वही उजली स्मित रेखा ओढ़ ली थी

    जो तुमने माँगी थी—

    थोड़ी-सी थकी हुई,

    थोड़ी-सी स्थिर

    और बहुत गहराई से भरी हुई

    तुम कह गई थीं—

    थोड़े से सरल हो जाना!

    मैं सच कहूँ—

    उस दिन मैं

    पहली बार मैं कुछ

    ज़्यादा ही सरल हुआ।

    जब अग्नि की लपटें उठीं

    मैंने देखा—

    तुम जा नहीं रहीं थीं,

    तुम मिट रही थीं—

    जैसे कोई ऋतु

    धीरे-धीरे

    किसी पेड़ से उतरती है।

    मैं नहीं रोया।

    क्योंकि तुमने रोने से

    मुक्त कर दिया था।

    मैं मुस्कुराया—

    जैसे तुमने सिखाया था।

    फिर लौटते हुए—

    मैंने अपनी सारी उलझनें

    एक-एक करके

    तुम्हारी चिता की अग्नि में डालीं।

    कुछ कहे नहीं गए वाक्य,

    कुछ अधूरी शिकाएतें,

    कुछ ज़िद,

    कुछ ग़लतफ़हमियाँ—

    सभी को

    उस राख़ में मिलते देखा।

    और लौटते हुए

    मैं खाली नहीं

    हल्का था।

    अब भी जब कोई पूछता है—

    कैसी थीं वो?

    तो मैं कहता हूँ

    जाने वाली नहीं थीं—

    सिखाने वाली थीं।

    इतना सिखा गईं

    कि उसके बाद भी

    मेरे अंदर वही है हमेशा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रमिला शंकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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