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मृत्यु

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शशि शेखर

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शशि शेखर

मृत्यु

शशि शेखर

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    मेरा मर जाना क्या है?

    देह का ढीला होते-होते

    चेहरे का झुर्रियों से भर जाना,

    मांस का कई परतों में

    धीरे-धीरे लटक जाना था

    रोग में खाँस-खाँस कर

    ख़ून की उल्टियाँ करना और

    चलते-चलते बेसुध हो

    कहीं गिरकर ढेर हो जाना

    —ये सब कुछ तो मरना ही है

    क्योंकि पल-पल का बीतता जाना

    मरना है,

    एक अर्थ में माँ की उँगली से छूट जाना

    भी मरना है,

    तुम्हारी मुस्कुराहट को हथेली में

    समेट पाना भी मरना है

    और वह सब कुछ मरना है

    जो समय के साथ बँधकर चलता है।

    सब कुछ जानकर भी—

    जीवन की अव्यवस्था को, निरर्थकता को

    ख़ालीपन को, बेतुकेपन को, फूहड़ता को

    जीवन के अंत से डर लगता है,

    जीवन की वास्तविकता जानकर भी

    जीवन में कुछ 'बिल्कुल नया' ढूँढ़ना बाक़ी रहता है

    कोई आशा जाग उठती है

    किसी चमत्कार में विश्वास पैदा हो जाता है

    संस्कार रूप में जिजीविषा को थाम लेते हैं

    या कुछ पल स्वयं को स्थगित कर

    कल्पनाओं में साँस लेने लगते हैं,

    वह भला कौन-सा मोह है

    जो ज्ञान को निगलने देता है

    थूकने,

    वह कौन-सा डर है

    या कौन-सा प्रलोभन

    जो अपने अस्तित्व की बेतुकी अनिवार्यता को

    चुपचाप सह जाने को मना लेता है

    और सच को जानकर

    फिर वहीं लौट जाने को समझा-बुझा लेता है जहाँ से

    यह खोज शुरू की थी,

    क्या जीवन को जान लेने का सारा संघर्ष

    देह ही नहीं, चेतना को भी थका देता है

    कि उस जागृत चेतना को

    डिब्बे में बंदकर हम सिरका-चीनी डाल

    मुरब्बा बना देते हैं

    और उन सभी के साथ

    चलने-फिरने, घूमने, बतियाने, दौड़ने लगते हैं

    जिनकी फूहड़ चाल की निंदा करते

    स्वयं को उनसे अलगाया था

    और अस्तित्व की तलाश में

    अपना संचित वह सब कुछ लुटा दिया था

    जो बिना माँगे मिल गया था— उपहार में

    जिसे स्वीकार लेने की केवल इच्छा भर नहीं थी

    बल्कि एक दबाव भी था,

    फिर अंत में कौन-सा अर्थ पा लिया

    कौन-सी जीत हासिल हुई

    क्या यह सारा संघर्ष, यह सारा त्याग

    महज एक महत्त्वाकांक्षा ही रही

    जो अधूरी थी, क्योंकि जीवन ही अधूरा था,

    एक अंतिम निर्णय हमारे हाथ था— मृत्यु

    जिसे हम वरण कर सकते थे

    पर चूँकि एक डर था, अनजाना-सा

    या कोई चाह थी, नेपथ्य में

    जो इस अंतिम निर्णय को भी डकार गई, बिना शब्द के

    और हम भीड़ में भीड़ का हिस्सा होकर रह गए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शशि शेखर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित

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