एक पल को रुक कर ज़रा
अपनी मौत को देखो—
तुम कहाँ से आए थे
और कहाँ को चले जाओगे
—इन दोनों धुंधले रहस्यों के बीच
उस छोटे-से पल को
जिसे भाषा में मृत्यु कहते हैं,
जीवविज्ञान में शरीर का पूर्णतः निष्क्रिय हो जाना
और अनुभव में
एक ऐसा मौन, जो शायद कभी नहीं टूटता,
बस उसी मौन में
या नहीं
उस मौन से थोड़ा पहले
सीढ़ी के उन पायदानों पर
थोड़ा रुको
जो किसी 'अज्ञात' परिणाम की तरफ़
धीरे-धीरे सरकता जाता है,
मृत्यु का हल्का एहसास ही
कितना तड़पा देता है
बेचैन कर देता है
और लगातार मरने को सोचने वाला भी
जीवन को कस कर थाम लेना चाहता है
आख़िर क्या है उस छोटे से पल में
वह कौन-सा रहस्य है
या कौन-सी अनजान शक्ति
जो व्यक्ति के पूर्व निर्णयों को
भुला देती है
और अपनी सत्ता जमाकर
अपना ऐसा प्रभाव बनाती है
कि व्यक्ति-व्यक्ति नहीं रहता
सोच-सोच नहीं रहती
निर्णय-निर्णय नहीं रहते
और व्यक्ति असहाय होकर
अपनी करुणा के संपूर्ण आवेग से
चीख़ पड़ता है,
मनुष्य की जिजीविषा ही
जो उसे बल देती है,
स्वतंत्र होने की चाह जगाती है,
इच्छाओं का अंबार लगाती है,
संघर्ष का उत्साह देती है, वही
बढ़ते हुए क़दमों को
फिर एक दिन चुपचाप ही खींच लेती है
और ज़मीन पर औंधे मुँह गिरा व्यक्ति
एकाएक सकते में आ जाता है,
क्यों एक पल में वह सब कुछ हार जाता है,
जिसे देखा भी नहीं कभी, वह
सबसे डरावना होकर डरा देता है,
आर या पार की लड़ाई में
कहीं का नहीं छोड़ता
बस बदला जाता दर्द
शरीर की टूटन
सिर का भारीपन
चेतना का डोलना
इतना बेबस कर देता है कि
बस उसी पल में
सारा जीवन उल्टा नाच नाच लेता है
और पैरों के बल खड़ा इंसान
सिर के बल खड़ा होकर
ख़ुद से ही हार जाता है,
उस हार की पीड़ा को समझो
जिसका इतिहास लिखा नहीं जाता
पर लज्जित करता रहता है
सब व्यक्तियों के अस्तित्व को समय-असमय।
- रचनाकार : शशि शेखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित
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