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दीपक : एकाकी

सुरेन्द्र झा 'सुमन'

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और अधिकसुरेन्द्र झा 'सुमन'

    एकाकी के अहँ बरनिहार!

    सम्पूर्ण स्नेहसँ जीवन भरि तिल-तिल कय के अहँ जरनिहार!

    नहि देखि रहल छी जे तम-दल अछि घेरि चलल चौदिस नभ-तल

    अस्तमित भानु भयसँ विह्वल शशि दूर पड़ाय अकाश बसल

    पुनि अहाँ क्षीणतम ज्योति-बले की बुझि युग-युगसँ अड़निहार

    एकाकी के अहँ बरनिहार?

    छथि कोटि-कोटि नक्षत्र ठाढ़, अछि तनिक ज्योतिसँ नभ सिङार

    सभ क्यौ तटस्थ, सभ क्यौ उदास, नहि ककरहु उर साहस उदार

    की सोचि विपथ दिस चलनिहार! एकाकी के अहँ बरनिहार?

    माटिक शरीर, बातिक उर बल अछि बिन्दु मात्र स्नेहक संबल

    नहि शीशक रक्षा-यन्त्र सबल, लघु जीवन, लघु लघु शिखा चपल

    पल-पल प्रवात पुनि बहनिहार! एकाकी के अहँ बरनिहार?

    खटितहुँ, पल-पल, जरितहुँ कलबल, कय सकब कुटीरहि धरि प्रकाश

    होइतहि निशान्त सभ मिझा देत, केवल शिखाक कलुषोपहास

    बुझितहुँ विनाश दिस बढ़निहार! एकाकी के अहँ बरनिहार?

    उत्साही सहचर पतंग, जे जरय अंग बनि अहँक संग

    तकरहु विनाश केर मूल हेतु बनि, अयश मात्र होइछ अभंग

    आदर्शवाद पर मरनिहार! एकाकी के अहँ बरनिहार?

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 44)
    • संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
    • रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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