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मेरी धरती मेरे भीतर

meri dharti mere bhitar

रविशंकर उपाध्याय

अन्य

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रविशंकर उपाध्याय

मेरी धरती मेरे भीतर

रविशंकर उपाध्याय

और अधिकरविशंकर उपाध्याय

    मेरी धरती मेरे भीतर है

    और मैं उसके भीतर।

    वह बह रही है मेरी धमनियों में

    मेरे हर पसीने की बूँद में टपकती है वही

    मेरे चूल्हे तक पहुँचकर तपने के लिए तैयार है

    और हमारी भूख उसको लपकने के लिए।

    मगर अचानक एक दिन मेरी धरती

    कहीं ग़ायब हो गई।

    मैं उसे ढूँढ़ रहा हूँ

    अपने गाँव, अपने शहर में

    मैं उसे ढूँढ़ रहा हूँ

    और चिल्ला रहा हूँ

    हर चौक-चौराहों पर

    अख़बारों में, पत्र-पत्रिकाओं में

    अब तो संसद भवन में भी मेरी आवाज़ गूँज रही है

    लेकिन मेरे भीतर की धरती

    पता नहीं कहाँ चली गई।

    चिल्लाते-चिल्लाते मेरी चिल्लाहट एक कराह में बदल चुकी है

    मेरी नसों में अब नहीं बह रही है मेरी धरती

    जिसमें जेठ की फटी दरारों में

    मैं समाता जाता था

    और आषाढ़ की पड़ती बूँदों के साथ ही

    वह गीली होकर पसरने लगती थी

    मेरे भीतर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 85)
    • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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