लोककथाक एक टा सिंह
जम्बू द्वीपक गद्दी पर बैसि गेल
पुस्तैनी अधिकार सँ भाग्य विधाता
बनि गेल ओहि शत सहस्त्र
शशक सभक
जकरा कान पकड़ि
लोक उठा लैत छल
समय-असमय
शस्य-श्यामल भूमि सँ अपना हित।
किन्तु रूपक स्वरूप ओ सिंहराज
भ’क’ सवार निकलैत छल
द्युति केर ग्रह पर
दाँगैत कौखन पानि कौखन
भरल कोखि खेत कौखन
आकाश कौखन दिक्काल
मात्र बाँटबाक लेल
शब्द एक जे परिभाषाविहीन
याचित जुलूस
कौखन शुष्क
श्रीहीन पुष्पक खंडित माल।
अवाक ओ होथि नहि
बहुत-बहुत सवाक हुनक
संग सन्नद्ध छल
शशक शावक केँ
अरण्य केर पुरखा सँ
बहुत किछु अज्ञात जे
से ज्ञात छल।
तेँ ओ आन्हर इनार नहि
नदी नहि सागर नहि
क्षिप्र एक शान्त
धारक कात जा बैसल क्लान्त
दिन छलैक साफ
जेना प्रार्थनाक उपरान्त
चिर-प्रतीक्षित भोर।
किन्तु दुघर्टना एक घटि गेल
देखा गेलैक ओहि निःकाय नदी मे
पातालोन्मुख नील अकास
देखा गेलैक आरक्त ठोरक नीचाँ
दाढ़ी मे नुकायल
ओ चर्चित तिनका देखा गेलै
मुखमंडलक चतुर्दिक पसरैत
कारिखक मोट होइत रेखा।
भयंकर गर्जन-तर्जन कयलक
ओ सिंहराज-विस्फोट सँ काँपि उठल
वनप्रान्तर दरकि गेल
एक हजार नौ सौ अठासी माय केर
कोंढ़-करेज आसन्न साकार संकट सँ
किन्तु ओ शशक शावक
आवाजक उद्वेग सँ जा खसल
गंगाक कोर सँ बहैत
प्रशान्त सन सागर मे
डूबैत मस्तूल जकाँ चिकरैत...
नहि....नहि ओ अबाध घूर्णित
आकास केँ मथैत नक्षत्र जकाँ
आर्त चित्कार आहत राजहंस केर
…कत’ छी आदिकवि
…कत’ अछि सिद्धार्थक अंक पावन?
किन्तु श्रेष्ठिजन विद्वमंडली
कुंडलिनीक सर्प जकाँ अंध गह्वर मे
प्रश्नाकुल गह्वरित
किएक होअय लागल अछि
दिन साफ एहि अरण्य मे
जे हाथक रेखा देखा जाइत अछि
…किएक होइत अछि समय शान्त
जे अन्तर्यात्रा खुलि जाइत अछि?
- पुस्तक : संग समय के (पृष्ठ 114)
- रचनाकार : महाप्रकाश
- प्रकाशन : अंतिका प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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