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बनल रहय ई स्वाध्याय

banal rahay ii svadhyay

विवेकानन्द ठाकुर

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विवेकानन्द ठाकुर

बनल रहय ई स्वाध्याय

विवेकानन्द ठाकुर

और अधिकविवेकानन्द ठाकुर

    पंडित लोकनि

    कर्म-कांडक पेँच मे ओझरायल

    त’ ओझरायले रहलाह

    लक्ष्मी-पात्र लोकनि

    रंग-रभस मे डूबल

    त’ डुबले रहलाह

    एम्हर पछिमा साँढ़

    मोसम्माती मिल्कियत मे

    जे हूलल

    त’ हुलले रहल

    केओ हाँ-हाँ कहनिहार नहि

    पनिमरु समाजक

    केओ माय-बाप नहि

    केओ रक्षक नहि

    पछिमा साँढ़

    गाम-गाम

    नगर-नगर

    धँगैत रहल

    झंडा गाड़ैत रहल

    आब स्कूले स्कूल

    पढ़ुआ सभ

    स्त्रीलिंग-पुल्लिंग रटैत

    अपन भाषा केँ बोली बुझैत

    तैयो…

    जेना चिरचिरी नहि होइए निर्मूल

    जेना बाँस नहि होइए निर्वंश

    तहिना…

    कुट्टी-कुट्टी क’ चरि गेल जजात जकाँ

    जड़ि धेने अपन भाषा

    जिबैत रहल-जिबैत रहल

    किछु एहनो लोक

    जे कहाबथि अपन लोक

    देश-विदेश मे

    जिनक ऊँच आसन

    अपन-अपन क्षेत्रक

    बनल महाजन

    बड़-बड़ सुख-सम्पदाक भोग

    मुदा, अपन भाषाक भोग, अभोग

    कोमल कंठ सँ बहराइत

    सुगम ककहरा हो

    कि माँजल कंठ सँ बहराइत

    करुण चैताबर

    हुनका सभ लेल

    दुनू बाँतर

    अपेक्षितक उपेक्षाक डाँस

    बड्ड मारक - बड्ड बिखाह

    तैयो…

    जेना चिरचिरी नहि होइए निर्मूल

    जेना बाँस नहि होइए निर्वंश

    तहिना…

    पाला मारल जजात जकाँ

    सियाह भेल अपन भाषा

    जिबैत रहल - जिबैत रहल

    जातीय महारोग सँ भ’ जाउ विमुक्त

    अपना मे राखू असीम सौहार्द

    ने केओ अछि पंडित

    ने केओ लक्ष्मी-पात्र

    जे जत’ जेना

    से तत’ तेना

    धुरझार लिखइ जाउ

    धुरझार बजइ जाउ

    कर्ताक ने चेन्हक प्रयोग

    लिंग-भेद

    सभ केँ अछि बूझल

    मुदा, मायावी लपेट मे

    केओ नहि पड़इ जाउ

    अपन क्रिया-पदक

    प्रतिष्ठा रखइ जाउ

    गाम हो कि आसाम

    राम होथु कि रहीम

    जे जत’ जेना

    से तत’ तेना

    स्वप्न देखब केओ नहि छोड़ब

    संवादक डोरि केओ नहि तोड़ब

    बनल रहय स्वाध्याय

    लिखा रहल अछि

    अपन भाषाक नव अध्याय

    अपन भाषाक नव अध्याय

    स्रोत :
    • पुस्तक : चानन घन गछिया (पृष्ठ 157)
    • रचनाकार : विवेकानन्द ठाकुर
    • प्रकाशन : विवेकानन्द ठाकुर
    • संस्करण : 2011

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