मैं उस आख़िरी लहर का किनारा हूँ
main us akhiri lahr ka kinara hoon
मैं ठहरी हुई साँस हूँ
तुम्हारे भीतर जमा हुआ हिमालय
जहाँ शब्द बर्फ़ बनकर गिरते हैं
और अर्थ चुपचाप जम जाते हैं।
मैं उस आख़िरी लहर का किनारा हूँ,
जहाँ सागर थक कर सो जाता है।
मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं का
वह अनसुना शंख हूँ
जिसकी गूँज भीतर ही भीतर
दम तोड़ देती है।
तुम्हारे मन के जंगल में
मैं वह टूटी हुई शाख़ हूँ
जिस पर बैठा एक पंछी
अपनी अंतिम उड़ान से पहले
शब्दों का गीत गुनगुना गया।
मैं तुम्हारी आत्मा पर अंकित
वह पूर्ण विराम हूँ
जो तुम्हारे हर प्रश्न को
एक ठहरी हुई शांति में बदल देता है।
मैं अंत भी हूँ
और शायद एक अनसुनी शुरुआत भी।
मैं तुम्हारी पलकों पर रुकी
वह अंतिम बूँद हूँ,
जो गिरते-गिरते रुक गई है।
एक मौन स्वीकृति
एक गहरा विस्मय
और तुमसे जुड़ा हुआ
एक शाश्वत क्षण।
- रचनाकार : शैरिल शर्मा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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