मैं प्रेम करती हूँ अपने मालिक से
main prem karti hoon apne malik se
मैं प्रेम करती हूँ अपने मालिक से
मैं इकट्ठा करती हूँ झाड़ीदार लकड़ियाँ
उसकी रोज़ की आँच जलाने के लिए
मुझे प्रेम है उसकी नीली आँखों से
जो भेड़ की तरह कोमल हैं!
मैं उसके कानों में डालती हूँ शहद की बूँदें।
मुझे प्रेम है उसके हाथों से
जिन्होंने गिरा दिया था मुझे घास के बिस्तर पर!
मेरा मालिक काटता है मुझे, देता है यातना!
सुनाता है मुझे गुप्त कहानियाँ
जब मैं पंखा करती हूँ उसकी देह को
घावों से भरी, गोलियों से छलनी
बीते समय के युद्धों से।
मुझे प्रेम है उसके लुटेरे पैरों से
जिन्होंने पार किए हैं कई विदेशी मुल्क
मैं मलती हूँ उन पर मुलायम से मुलायम पाउडर
जो एक सुबह मैंने ढूँढ़े थे
लौटते हुए तंबाकू के खेतों से।
उसने छेड़ी अपनी गिटार
और गूँज उठीं कई सोज़भरी धुनें
जैसे मैनरिक गा उठा हो।
मुझे प्रेम है उसके सुंदर लाल मुख से
जिसमें से निकलते हैं ऐसे शब्द
जो मेरी समझ से बाहर हैं
कि मैं बोलती है उससे अभी तक
उस भाषा में जो उसकी नहीं है।
और समय का रेशम चिथड़ा-चिथड़ा है
उस रोज़ चोरी से सुनते हुए
बूढ़े हब्शी अधिकर्मियों की बातें
मैंने जाना
कि कैसे उसने कोड़े बरसाए थे
चीनी मिल के हौज़ख़ाने में
कि जैसे वह जगह ईश्वर का बनाया नरक हो!
कितनी देर बड़-बड़ करते रहे थे वे लोग।
क्या कहने वाला है वह मुझसे?
क्यों रहती हूँ मैं इस खोह में, जिसमें
रहना पसंद न करे एक चिड़िया भी?
क्यों रहती हूँ हर वक़्त उसकी ताबेदारी में?
कहाँ जाता है वह अपनी सजावटी गाड़ी में
खींचते हैं जिसे मुझसे ख़ुशनसीब घोड़े?
उसके लिए मेरा प्रेम
जैसे कोई जंगली बाड़ खा जाए ग़ुलामों के खेतों को—
यही इकलौती चीज़ है जिसे मैं अपना कह सकती हूँ!
मैं गाली देती हूँ।
यह सूती कपड़ा जो उसने मेरे कंधों पर ओढ़ा रखा है।
ये बेकार की झालरें जो उसने ज़बरदस्ती मुझे पहनाई हैं।
घरेलू कामों में घिरी मेरी दुपहरें
जहाँ नहीं उगता कोई सूरजमुखी
और यह भाषा, इतनी दुश्मन-सी कि मुझसे थूकी भी नहीं जाती,
और यह पत्थर-जैसे स्तन जिन्हें वह चूस नहीं सकता,
और यह पेट जिस पर पड़ते हैं उसके कोड़े,
और यह मुआ दिल।
मैं प्रेम करती हूँ अपने मालिक से
लेकिन हर रात जब मैं गुज़रती हूँ
गन्ने के खेतों में से
हमारे प्रेम की गुप्त जगह पर
मैं देखती हूँ अपने हाथ में एक चाक़ू
उस पर चलता हुआ
जैसे वह कोई बेगुनाह जानवर हो।
जादूमयी ढोल की थापें
डुबो देती हैं उसकी चीख़ें, उसके कष्ट
बजती हैं दूर चीनी मिल की घंटियाँ...
- पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 405)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : नेन्सी मोरेजॉन
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्करण : 1989
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