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कोहलू

kohlu

केहरि सिंह मधुकर

अन्य

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और अधिककेहरि सिंह मधुकर

    चुरमुर-चुरमुर कोहलू चलता

    बलद* चले इक चाल

    यह जन्मों का राही है

    क्या माह क्या साल

    जजरी-जजरी* चाल यह चलता

    गले बजती कंग्रेल*

    डंडा खिंचता तिलहन फिसता

    तब मिलता है तेल

    ज़ोर-ज़ोर से साँटा पड़ता

    पीठ झनाझन झन

    आँखों पर रहती पट्टियाँ

    क्या चैत्र-सावन

    हर कोई इसे रहे डपटता

    कि करे तेज़ ज़रा चाल

    यह मजबूरी में बँधा हुआ

    बेमार्ग बेहाल

    मीलों थककर भी

    रहता एक ही धाम

    तेली बेचे इसकी मेहनत

    नहीं बैल का नाम

    एक खटे दिन रात बेचारा

    दूजा मौज उड़ाए

    क्या जीने का शौक़ भला फिर

    यह क्या जीवन-गाथा गाए

    यह कैसा निज़ाम बना है

    यह व्यवहार जलाए

    ऐसे ही बस इस युग का

    कोहलू चलता रोज़

    मानव भी एक बैल बना है

    नहीं सूझती सोच

    मजबूरी से बँधकर चलता

    धीमी-धीमी चाल

    इस शोषण से बन चोर लफ़ंगा

    ले अपराधों की ढाल

    आश्वासन की पट्टी बाँधे

    चलता उलटी चाल

    बेकारी का डंडा हांके

    उसी को खींचता जाए

    आस मन की; रूप तन का

    सबकुछ तेल बनाए

    भूख का चाबुक पड़ता जब

    तो करे तेज़ कुछ चाल

    सोच-सोच कर उम्र गँवाए

    मिलती नहीं कोई ताल

    तिल-तिल करती जले जवानी

    मिटे जीवन-जयकारे

    इसके मालिक ऐश करें

    और यह हर पल चीत्कारे

    बच्चे भूखे इसके

    भूख अभाव से रोएँ

    तो कोहलू के चक्कर इसको

    अपनी चाल चलाएँ

    कितनी देर तक चलेंगे कोहलू?

    मानू* बैल कहलाएगा?

    कब तक आख़िर इसको मालिक

    अपनी चाल चलाएगा

    कितने और दिनों तक यह

    आँख पर पट्टी बाँधेगा

    कब तक बैल का जीवन जीकर

    यूँ ही चक्कर काटेगा

    बेगारी में जुत कर कब तक

    तेल निकालता जाएगा

    कब तक सत्ता के यह कोड़े

    पीठ पर खाता जाएगा

    कब तक यूँ ही भूखे रहकर

    उदरम्भरियों को खिलाता जाएगा

    क्योंकर अपनी कंगरेलों की ही

    टन-टन सुनता जाएगा

    कब तक झूठी आस का आख़िर

    जाला बुनता जाएगा :

    कितनी देर तक गिनोगे चक्कर?

    जीवन नहीं है कोहलू का बक्खर*

    आओ

    सभी एक हो जाओ

    रूप काल का बदल रहा है; एक ही पलटा देना है

    क्षण भर की ही बात है बस; तनिक सा ज़ोर लगाना है।

    *कोहलू : कोल्हू

    *बलद : बैल

    *जजरी : विवशता से भरी

    *कंग्रेल : बैलों के गले में बाँधा जाने घुँघरुओं का पट्टा

    *बक्खर : तिलहन

    स्रोत :
    • रचनाकार : केहरि सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अनुवादक द्वारा चयनित

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