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खुली हुई

khuli hui

प्रिया वर्मा

प्रिया वर्मा

खुली हुई

प्रिया वर्मा

और अधिकप्रिया वर्मा

    कितना खुल सकते हो मेरे साथ

    उसके पहले मैं बता दूँ कि मैं कितना खुल सकती हूँ

    मैं चमड़ी के पीछे के अस्थि-मज्जा-मांस के बीच बहते

    रक्त के चाप तक को उतार सकती हूँ

    चिकित्सा में कोई नाम रखें इसका

    पर पारा मेरी ज़बान पर रखकर मैं अल्फ़ाज़ उतार सकती हूँ

    मेरा नाम जो तुमने अभी लिया है—

    इसकी केंचुल के बाहर निकल सकती हूँ

    जैसे लखनऊ की मेट्रो चलती है ख़ाली-ख़ाली एकदम

    ऐसे मैं अपनी उम्मीद उतार सकती हूँ

    अँधेरे में उतर सकती हूँ

    घटे-बढ़े चाहे जो हो मैं ख़ुद में पानी

    और पानी में ख़ुद को डुबा सकती हूँ

    मेरी आत्मा तक पहुँचने की एक सुरंग है

    मेरे वक्ष पर निवासी हैं मेरे सौंदर्य प्रतिमान

    मेरी कौड़ी जैसी आँखें

    मेरी घ्राणशक्ति और स्वाद

    सब उतारकर तुमसे मिल सकती हूँ

    तुम्हें भी तुममें उतारना जानती हूँ मगर

    मैं कहना चाहती हूँ कि भू-गर्भ की हुआ करे पर

    मेरे उतरने की कोई हद नहीं है

    यह जो ख़ालीपन देखते हो आस-पास

    ये सब मेरा ही उतारा हुआ सामान है

    शायद तुमने मुझसे मिलने के पहले अपनी दृष्टि कहीं उतार कर रख दी

    इससे ही मुझे पहचान नहीं पाए तुम

    मैं खुलकर कली से पूर्ण विकसित फूल हो सकती हूँ

    इस एक शर्त पर

    कि मुझे विसर्जित किया जाए

    मैं खंडित शिलाओं में बंद मौन के टूटने की दिशा में

    खुली हुई खिड़की हो सकती हूँ

    हाँ तुम्हीं नहीं चल सकोगे फिर

    मेरे खुलेपन के साथ

    खुले हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रिया वर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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