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कठपुतली

kathputli

मीना प्रजापति

और अधिकमीना प्रजापति

    कठपुतली नहीं हूँ मैं

    ही नकाशे की गैया

    एक हाड़ मास का ज़िंदा इंसान हूँ

    जिसमें भावनाएँ हैं, इच्छाएँ हैं,

    सपने हैं और आगे बढ़ने की महत्वकांक्षाएँ हैं

    कठपुतली जैसी हर ज़िंदा लड़की

    लाल, पीली, हरी नीली सतरंगी तो होना चाहती है

    परंतु ख़ुद पर, सोच पर किसी का कंट्रोल नहीं चाहती

    लाली-लिपस्टिक और काजल में ढंकी-छुपी कठपुतली की आँखें,

    दुनिया भर को पसंद तो आती हैं,

    लेकिन कोई उस कठपुतली से भी तो पूछे?

    क्या उसके हाथ में बंधी बंधनों की डोर

    उसे रत्ती भर भी भाती है

    सजना वो भी चाहती है संवरना मैं भी चाहती हूँ

    कठपुतली को चलाने वाले हज़ारों आते हैं

    पर बंधनों की डोर किससे खुलती है

    यही इंतज़ार है

    कठपुतली तो काठ की पुतली है

    उसे तो माँ ने रचा है, पिता ने रचा है, कुल मिलाकर समाज ने रचा है

    उठना, चलना, लरजना में उसे रंगा गया है

    पढ़ने-लिखने की पूरी आज़ादी है

    बस बाहर नहीं जाना

    दहलीज़ लाँघने वाली 'गंदी' औरतें बना दी जाती है

    आज़ादी को चखने की जितनी सीढियाँ घर वालों ने बताईं उतनी ही चढ़नी हैं

    खुला आसमान नहीं देखना

    लेकिन जिस दिन इस कठपुतली को

    खुली हवा मिल गई

    वो आत्मनिर्भरता में रंग गई

    एफ, पीएफ, मैच्युरिटी, घूँघट, हिजाब सबका हिसाब सीख जाती है

    बस फिर आम सोच से केंचुल समान विरक्ति पाती है

    अब कठपुतली को कौन संभाले, यह बड़ा सवाल बन जाता है

    असल लर्न, अनर्लन का संघर्ष तो यहीं से शुरू होता है।

    पुराने की छुटन और नए की तड़पन

    उसे अकेला, हताश और बागीपन से भर देती है

    अपनी नुमाइश जिसे कठपुतली अपना कर्तव्य मानती थी

    अब उसी पर सवाल करती है

    और इस तरह समाज में गढ़े नियमों की बलि दे देती है

    कभी मन कुछ खोती है तो कभी कुछ लपकना चाहती है पर

    कठपुतली को सब नचाना चाहते हैं,

    अपने रंग में ढालना चाहते हैं,

    पर वह किसी ऐसे साथी की तलाश में है

    जो उसे उसकी रौ में संभाल सके

    बिना कुछ बदले बिना कुछ जताए

    उसे 'उसके पन' में अपना सके।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मीना प्रजापति
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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