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आज़ादी

azadi

अनुवाद : रतनलाल शांत

ग़ुलाम अहमद 'महजूर'

अन्य

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और अधिकग़ुलाम अहमद 'महजूर'

    (देश विभाजन के बाद)

    गुण गाओ, हमारे घर के अंदर घुस आई आज़ादी,

    चिरकाल बाद हमको अब झलक दिखाने आई आज़ादी।

    जब आज़ादी पहले पहले हिंदुस्ताँ में प्रकट हुई,

    भीड़ में बस लाखों लोगों को झोंकती आई आज़ादी।

    पश्चिम के देशों पर रहमत की बरखा बरसाती है

    ज़मी हमारी पर बस गर्जन करती आई आज़ादी।

    ज़ुल्म, दलिद्दर, अनाचार; और घरों में वीरानी,

    हम पर ऐसी शोभन छाया, करती आई आज़ादी।

    तुम क्या समझे आज़ादी ज्यों बाज़ारों में चना बिके?

    चाय विदेशी, होटल में चुस्कियाँ उड़ाती आज़ादी।

    आज़ादी सुंदर मुर्गी है, सोने के अंडे देती,

    उन अंडे को सेने अब तो उन पर बैठी आज़ादी।

    यह आज़ादी हूर स्वर्ग की है, क्या घर घर जाएगी?

    बस केवल कुछ चुने घरों में घूम झूमती आज़ादी।

    आज़ादी कहती है पूँजीवाद नहीं रहने देगी,

    अब बटोरने लगी है पूँजी अपनों से ही आज़ादी।

    आज़ादी लोगों पर ‘हारी पर्वत’ सी भारी पड़ती

    किस्मत वालों को फूलों सी कोमल, हल्की आज़ादी।

    देकर लगान लौटे किसान, बतियाते खलिहानों में यों-

    हमरा दाना दाना सब कुछ छीन ले गई आज़ादी।

    पहले के ज़ालिम शासक, आठ लेते थे प्रति खिरवार,

    चौदह देकर अब छुट सके, जब से घर आई आज़ादी।

    मुट्ठी भर चावल को उसकी काँख तलाशी जगह जगह

    अब छिपा टोकरी पल्लू में, कुंजड़न ले आई आज़ादी

    नबी शेख समझे मतलब, उसकी बीवी ले उठा गए

    वह फर्यादी हुआ, पर उधर बच्चा ब्याई, आज़ादी।

    मुर्ग़ कबूतर पालें लीडर, भूखों ग़रीब मरे, बदतर

    न्याय व्यवस्था देश में ऐसी, लेकर आई आज़ादी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 37)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : ग़ुलाम अहमद 'महजूर'
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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