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जमा-पूँजी

jama punji

रिया रागिनी

रिया रागिनी

जमा-पूँजी

रिया रागिनी

और अधिकरिया रागिनी

    माँ अपनी देह का ख़ासकर ख़याल रखतीं। नदी से पाँव बचातीं, ग़ुस्से के चरम पर भी बालों में तेल नहीं जमने देतीं, कभी बासा खातीं, बासी मोगरा अपने बालों को छूने ही देतीं। इतना रगड़तीं वह अपनी देह को कि रोज़ नई त्वचा के होने के अपरिचित स्वर से बचता उनका दिल एक ही त्वचा के भीतर गलता, सँभलता, बुदबुदाता, रोज़ाना उनसे लड़ता।

    मुझे अक्सर लगता कि उनका दिल जाने कितने सालों से अपनी खाल बदलना चाह रहा है और खाल बदलने के लिए एक ऐसी परछाईं तलाश रहा है जहाँ खाल निकालते हुए उसे सूरज की ओर पीठ करनी पड़े (वैसे बदलनी पड़े उसे अपनी खाल जैसे माँ, कमरा बंद कर, दरवाज़े को पीठ दिखाकर जल्दबाज़ी में बदलती थीं कपड़े) जैसे उनका दिल उन्हीं से ही ग़ुस्सा रहा हो अपनी खाल उतारने के अधिकार के लिए।

    फिर भी माँ के पाँव, फटे के फटे ही रहते हमेशा। नाख़ून हल्दी पीले। बाथरूम से किचन तक की पाँच क़दम दूरी में ही एड़ी की स्मृति-लकीरें फिर ज़िंदा हो उठतीं। मैं जब-जब उनकी एड़ी दबाती—उनकी साँस, धड़कन, सब धीमी हो जातीं। उनकी बाहरी त्वचा तेज़ी से उभरने लगती, वह फिर मन ही मन कुछ बुदबुदातीं और लगता जैसे उनके पाँव की रेखाएँ और भीतर जड़ें पकड़ती चली जातीं।

    माँ अपने पर्स में जाने सालों-साल क्या-क्या जमा कर लेतीं। उनका पर्स और उनके पाँव की लकीरें—उनकी जमा-पूँजी के द्योतक जैसे बन बैठे। जब-जब माँ बुदबुदातीं, उनकी एड़ी छिलती और उनका पर्स और भारी होता चला जाता।

    जैसे माँ के लिए पर्स,

    मेरे लिए बिछौना।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रिया रागिनी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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