इस शहर से
is shahr se
सोचती हूँ अगर इस शहर को
गले लगाना चाहूँ तो
कैसे लगूँगी/
कोई इमारत तो हूँ नहीं
जो इस शहर की सीमा पर पहुँचते ही
जड़वत हो जाऊँ/
आकाश चूमती दीवारों की तरह
अट्टहास लूँ और—
इस संगमरमरी ज़मीन से मत्थे टेक दूँ/
कुछ यूँ कहते हुए कि
प्रार्थना के शब्द-सा कोई धुन बन जाए
और इस शहर में
गीत-सा बजने लगूँ/
यहाँ इस इलाक़े के एक रेस्त्राँ में
ये गीत मैं हूँ
इस शहर में बजती हुई
इस इमारत की दीवारों पर मुस्कुराती हुई
तो लग गई मैं गले और हो गया
मेरा मिलना-मिलाना इस शहर से
बस! इतना-भर प्रेम है इस शहर से कि/
गले लगकर छूटती हूँ तो
शहर किसी दूसरे धुन पर थिरक उठता है/
इमारत की दीवारें वही है
मगर उसमें रहने वाले लोग बदल जाते हैं/
मैं कोई इमारत तो हूँ नहीं कि ढह जाऊँ
जीती-जागती एक इंसान हूँ
और/
इंसान का इमारत बनकर
किसी आकाश पर क़ाबिज़ होना
कत्तई जायज़ नहीं/
सोचती हूँ इस आकाश को मुक्त कर दूँ
और चिड़ियों की जात से
मेल-जोल बढ़ा लूँ
कुछ इस तरह जैसे
ये पूरे आकाश की होकर भी
कहीं नहीं रूकती
उड़ जाती है बहुत दूर तक
इमारत की इंटें
कई नक्काशियों में
शहर की ख़ूबसूरती की बात करते हैं/
मैं जब भी इस शहर को प्यार करना चाहूँ
उड़ती हुई इस इमारत की छत पर
आ जाऊँगी और/
गीत की धुन पर बज जाऊँगी
इस तरह मेरा गले लगना होगा
इस शहर से!
- रचनाकार : प्रेमा झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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