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इस गड्ढे में फेंके जाने के समय से अब तक

is gaDDhe mein phenke jane ke samay se ab tak

अनुवाद : सुरेश सलिल

नाज़िम हिकमत

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नाज़िम हिकमत

इस गड्ढे में फेंके जाने के समय से अब तक

नाज़िम हिकमत

और अधिकनाज़िम हिकमत

    मुझे इस गड्ढे में फेंके जाने के समय से अब तक

    पृथ्वी दस बार सूरज के चक्कर लगा चुकी है

    अगर पृथ्वी से पूछो, वह कहेगी

    'वक़्त का इतना बारीक मीजान ठीक नहीं’

    अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा,

    'मेरी ज़िंदगी के दस साल!'

    जिस दिन मुझे क़ैद किया गया

    मेरे पास एक छोटी-सी पेंसिल थी

    जिसे मैंने एक हफ़्ते में घिस डाला।

    अगर तुम पेंसिल से पूछो, वह कहेगी

    'मेरी समूची ज़िंदगी!'

    अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा

    'तो क्या? सिर्फ़ एक हफ़्ता!'

    मेरे इस गड्ढे में आने के दिन

    क़त्ल की सज़ा भुगतता हुआ उस्मान

    साढ़े सात साल बाद छूटा।

    कुछ दिन बाहर की ज़िंदगी का लुत्फ़ लेने के बाद

    तस्करी के जुर्म में फिर वापस गया

    और छह महीने बाद छूटा।

    कल किसी से सुना कि उसकी शादी हो चुकी है

    और अगले वसंत में वह बाप बनने वाला है।

    मुझे इस गड्ढे में फेंके जाने के दिन पेट में आए

    बच्चे आज अपनी दसवीं सालगिरह मना रहे हैं

    और उसी दिन पैदा हुई बछेड़ियाँ

    अपनी पतली-लंबी टाँगों पर लचपचाती

    अपने पुट्ठों में कंपन पैदा करती

    सुस्त घोड़ियाँ हो चुकी होंगी।

    लेकिन जैतून के नन्हें अँखुए

    अभी भी नन्हें हैं—अभी भी बढ़ रहे हैं।

    वे कहते हैं कि मेरे यहाँ आने के बाद

    मेरे अपने क़स्बे में नए चौराहे बनाए जा चुके हैं

    और उस छोटी-सी झोपड़ी में रहता मेरा परिवार

    अब एक ऐसी गली में रहता है

    जिसे मैं नहीं जानता

    एक ऐसे घर में

    जिसे मैं नहीं देख सकता।

    मुझे इस गड्‌ढे में फेंके जाने के साल

    रोटी ताज़ा कपास जैसी सफ़ेद थी

    बाद में उसकी राशनिंग हो गई।

    यहाँ इन कोठरियों में

    मु‌ट्ठी-भर काले टुकड़ों के लिए

    लोगों ने एक-दूसरे की जानें ली हैं।

    हालात हालाँकि अब कुछ बेहतर हैं

    लेकिन जो रोटी मुझे दी गई है

    उसमें कोई स्वाद नहीं है।

    मुझे इस गड्ढे में फेंके जाने के साल

    दूसरा विश्वयुद्ध शुरू नहीं हुआ था

    दख़ाऊ के यातना-शिविरों में गैस की भट्ठियाँ नहीं बनी थीं

    एटमबम नहीं फटा था हिरोशिमा पर।

    ओह, वक़्त किसी क़त्ल किए गए बच्चे के ख़ून की तरह

    बह चुका है।

    वह सब बीत चुका है

    लेकिन अमरीकी डॉलर अभी भी

    तीसरे विश्वयुद्ध की धमकियाँ दे रहा है

    सब कुछ वही है

    सिर्फ़ दिन, मुझे इस गड्ढे में फेंके जाने के दिन से,

    ज़्यादा चमकदार हो गया है

    और मेरे अपने लोगों ने

    ख़ुद को कोहनियों के बल आधा उठा लिया है

    और पृथ्वी दस बार सूरज के चक्कर लगा चुकी है।...

    लेकिन मैं, दस साल पहले अपने लोगों के लिए लिखे गए शब्द

    आज भी उसी जोशीली लहक के साथ दुहराता हूँ :

    'तुम गिनती में उतने ही ज़्यादा हो

    जितनी ज़मीन में चींटियाँ

    समुद्र में मछलियाँ

    और आसमान में चिड़ियाँ,

    तुम डरपोक हो या जाँबाज़

    पढ़े-लिखे हो या अनपढ़,

    दुनिया की जय-पराजय जब तक तुम पर निर्भर रहेगी

    सिर्फ़ तुम्हारे ही साहस के गीत लिखे जाएँगे।'

    ...बाक़ी सब कुछ

    मस्लन दस साल की मेरी तकलीफ़ें—

    बस्स्, यूँ ही!

    स्रोत :
    • पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 190)
    • रचनाकार : नाज़िम हिकमत
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2003

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