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इंटरव्यू

intravyu

उसने नाम पूछा

मैंने कहा:

कचरा :

वह मुस्काते-मुस्काते बोली:

कचरा!!!

मैंने कहा :

हाँ कचरा;

कचरा भंगी,

दुख इस बात का है कि

यह नाम

मेरी बुआ ने नहीं रखा था।

उसने गाँव का नाम पूछा

मैं दुविधा में पड़ गया

वह हँसी, और फिर से पूछा

मैं क्या कहता

लेकिन फिर भी कहा—गाँव से बाहर

मेरा गाँव

जिसका नहीं है कोई नाम

उसे मज़ा आने लगा

तीसरा सवाल पूछा :

व्यवसाय?

मैंने कहा :

'गू' गैस कंपनी का मालिक हूँ,

विख्यात होटलों को

मरे हुए पशुओं के माँस की वेराइटी

सप्लाय करता हूँ।

जैकेट, बूट, बेल्ट बनाकर

मँहगे भावों में विदेशों में भेजता हूँ,

लाशों के

एक बार पहने हुए

फैशनेबल कपड़े

पूरे भारत के

शमशान गृहों से इकट्ठे करके

शो रूम्स की डिसप्ले पर

फिर से सजाता हूँ।

वह अधीर हो गई

फटाफट उसने पूछा आख़िरी सवाल :

प्रेरणा कहाँ से मिली?

मैं चिढ़ गया

ग़ुस्सा हुआ

मैंने दी मन भर की गाली

फिर सामने किए सवाल :

क्यों

तुम्हारा और तुम्हारे बाप-दादा का नाम ही

ज्ञानसूचक है?

क्यों

सिर्फ़ तुम्हारे ही श्रम का

डॉलर में रूपांतरण होता है?

क्यों

क्या सिर्फ़ हम ही सिर पर

मैला ढोते हैं?

क्यों

क्या तुम नहीं खाते

मरे हुए पशुओं का माँस?

क्यों

क्या तुम नहीं पहनते

अपने प्रियजनों की लाश पर

ओढ़ाए हुए कपड़े?

वह चालाक थी

उसने तुरंत

कमर्शियल ब्रेक ले लिया

जो अब तक पूरा नहीं हुआ!

स्रोत :
  • पुस्तक : गुजराती दलित कविता (पृष्ठ 186)
  • संपादक : अनुवाद एवं संपादन : मालिनी गौतम
  • रचनाकार : जयेश जीवीबेन सोलंकी
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2022

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