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इच्छा के न होने पर

ichchha ke na hone par

प्रतीक ओझा

प्रतीक ओझा

इच्छा के न होने पर

प्रतीक ओझा

और अधिकप्रतीक ओझा

    मन डूब रहा है

    गंध की पहली प्रकृति कर रही है प्रवेश हवा और दृश्य के लयताल में आवृत्ति बनाती हुई लयताल में तल्लीन मन के भीतर कोई चिड़िया बैठी है एक उँगली दौड़ रही है भीतर नीचे से ऊपर जिससे काटी जा रही भारी इच्छा की घास और मैं देख रहा हूँ कटते हुए उसे इस नम आँख से!

    दुःख है कि कट रहा है वह

    जिसे सबसे अधिक प्राथमिक रखा

    देता रहा पानी

    उगाता रहा जिसे

    पर अब कुछ नहीं है मेरे पास

    जिससे कोई इच्छा उपजे

    मृत्यु भी नहीं

    अगर वह एक इच्छा हो तो…

    वह सब नष्ट हो गया जिसे होना था

    उसके होने पर

    अब एक उबासी है

    दिन है बीतता हुआ

    बिस्तर है जिस पर लेटा हूँ दिन भर

    जी रहा जीने सहित किसी भी इच्छा से रहित

    तुम भी ऐसे ही होगे जब तुम्हारी मृत्यु होगी या चले जाओगे कहीं तो इच्छाएँ नष्ट हो जाएँगी तुम्हारे साथ मुझसे लगी हुई

    इच्छाओं के रहने पर आदमी मर जाता है

    आदमी के मरने पर उससे लगी इच्छाएँ मर जाती हैं

    दोनों में से कोई भी क्रिया हो

    आदमी की मृत्यु तय ही है

    मैं भी मर गया हूँ शायद

    मेरे साथ लगी तमाम इच्छाएँ मर गई हैं

    मृत्यु के बाद की शांति लिए

    अकेले या दुकेले रहने से दूर

    कुछ भी रह जाने के साथ ज़िंदा

    इच्छा के होने पर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रतीक ओझा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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