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भूखा

bhukha

खड़ा हुआ है कृषक सामने

दुख-द्रवित हैं उसके दृग,

ज़ोर-ज़ोर से साँसे चलतीं

डगमग-डगमग करते पग।

वह अकाल पीड़ित है, खाने

को पाता पेड़ों की छाल,

घोर कालिमा मुख पर छाई

काया है केवल कंकाल।

अंतहीन कष्टों ने उसको

कुचल दिया, कर दिया विमूक,

उसकी आँखें पथराई हैं

और हृदय उसका सौ टूक।

धीमे चलता जैसे कोई

ले पलकों पर निद्रा-भार,

वह जाता उस ओर जहाँ पर

उसकी बोई हुई जुआर।

रखता है अपने खेतों के

ऊपर अपनी अपलक डीठ,

और खड़ा होकर गाता है

एक बिना स्वर वाला गीत।

जुआर के खेत, उगो तुम,

जल्दी-जल्दी पको, बढ़ो,

और जोतने, बोने, सिंचित

करने का श्रम सफ़ल करो।

मुझे एक रोटी दो जिसकी

नाप मुझसे हो पाए,

मुझे एक रोटी दो जिससे

सारी पृथ्वी ढक जाए।

सब की सब मैं खा जाऊँगा,

क्यों छोड़ूँगा कण भर भी,

नहीं भूख ने छोड़ी ममता

बीवी और बच्चों पर भी।

स्रोत :
  • पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 102)
  • रचनाकार : निकोलाइ नेक्रासोव
  • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
  • संस्करण : 1964

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